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From Hug to Handcuff: The Debate Over Consent and the POCSO Act


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लद्दाख। भारत के इस केंद्र शासित प्रदेश का नाम सुन कर आपने मन में क्या छवि उभरती है? दर्शनीय पहाड़ों और चट्टानों से घिरा हुआ वो मनमोहक दृश्य, उन पहाड़ों पर छनकर इंद्रधनुषी चित्र बनाती सूरज की किरणें, प्राचीन मठों की शांति, बाइक राइड वाली लंबी और रोमांचक सड़के और भी बहुत कुछ। लेकिन लद्दाख में इस वक्त हालात ठीक नहीं हैं। क्यों लद्दाख की शांति को लगी है नजर? क्या कुछ ठीक नहीं है लद्दाख में और इन सब के बीच क्यों चर्चा में हैं मशहूर वैज्ञानिक सोनम वांगचुक। इन सब सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। लद्दाख में सब कुछ ठीक नहीं है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने और लद्दाख को संविधान के छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। और इन लोगों में एक नाम जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है मशहूर पर्यावरणविद सोनम वांगचुक का।सोनम वांगचुक उस वक्त काफी सुर्खियों में आए थे जब मशहूर फिल्म थ्री इडियट में आमिर खान ने उनका रोल निभाया था। लेकिन इस बार वजह कुछ और है। रैमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित सोनम वांगचुक ने पिछले दिनों लेह में 21 दिनों का आमरण अनशन किया था। बीते 6 मार्च को उन्होंने '#SAVELADAKH, #SAVEHIMALAYAS' के अभियान के साथ यह आमरण अनशन शुरू किया था। कड़ाके की ठंड के बीच यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब केंद्र सरकार और लेह स्थित कारगिल डेमोक्रेटिक अलायन्स के प्रतिनिधियों के बीच की बातचीत डेडलॉक की स्थिति पर पहुंच गई। ये डेडलॉक मुख्यतः चार मांगों को लेकर था। सरकार से उनकी कुछ मांगे हैं। दरअसल 2019 में धारा 370 के प्रभाव के खत्म होने के बाद जम्मू कश्मीर राज्य दो हिस्सों में बट गया था। जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया था। लेकिन अब लद्दाख के लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार उन्हें भूल गई है। कई बार उन्हें यह भरोसा दिलवाया गया कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। चुनावी वादों में भी इसका जिक्र हुआ। लेकिन अब तक उनकी मांगे पूरी नहीं हुई। उनकी प्रमुख मांग यह है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलें। इसके अलावा लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। एक अन्य मांग यह भी है कि लेह और करगिल के लिए अलग अलग लोकसभा सीट सुनिश्चित की जाए। इसके अलावा लद्दाख में अलग स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की व्यवस्था की जाए। अब जानते हैं कि यह मांगे क्यों उठ रही हैं। छठी अनुसूची के किसी भी इलाके में अलग तरह की स्वायत्ता होती है। संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) में विशेष व्यवस्था दी गई है। जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होने पर लद्दाख के पास यह विशेष अधिकार था। पूर्वोत्तर के कई राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में आज भी यह विशेष व्यवस्था लागू है। इसका फायदा यह है कि यहां इनका अपना प्रशासन है। इसे लागू होने के बाद खास इलाके में कामकाज को सामान्य बनाने के इरादे से स्वायत्त जिले बनाए जा सकते हैं। इनमें 30 सदस्य रखे जाते हैं। चार सदस्य राज्यपाल नामित करते हैं। बाकी स्थानीय जनता से चुनकर आते हैं। इन जिलों में बिना जिला पंचायत की अनुमति के कुछ नहीं हो सकता। यह सब तभी संभव है जब केंद्र सरकार इन्हें संविधान के मुताबिक यह अधिकार देगी। दूसरी मांग के पीछे भी कारण है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा बची हुई है लेकिन लद्दाख से विधायक नहीं चुने जाने का प्रावधान किया गया है। पहले यहां से चार एमएलए चुनकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व करते थे। लोगों के आक्रोश का एक बड़ा कारण यह भी है। इनका आरोप है कि अब उनकी बात सरकार तक पहुंचाने का कोई उचित माध्यम नहीं है। जब से नई व्यवस्था लागू हुई तब से सरकारी नौकरियों का संकट बढ़ गया है। पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के माध्यम से अफसरों की भर्तियाँ होती थीं तो लद्दाख को भी मौका मिलता था। आंदोलनकारियों का आरोप है कि बीते पांच साल में राजपत्रित पदों पर एक भी भर्ती लद्दाख से नहीं हुई है। गैर-राजपत्रित पदों पर छिटपुट भर्तियों की जानकारी जरूर सामने आई है। पर, लद्दाख में बेरोजगारी बढ़ी है। पढे-लिखे उच्च शिक्षित लोग छोटे-छोटे व्यापार करने को मजबूर हैं। बेहद कम आबादी होने की वजह से बिक्री न के बराबर होती है। दुकानें बंद करने की मजबूरी आन पड़ी है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर सोनम वांगचुक का कहना है कि केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने के बाद से लद्दाख में उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाने का खतरा है। इससे यहां कि नाजुक भगौलिक परिस्थिति और पर्यावरण को बेहद खतरा है। आने वाले दिनों में इस तरह के अनशन को और आगे बढ़ाने की बात भी चल रही है।



उम्र का वह पड़ाव जब बच्चे अपने खिलौने वाले किचन सेट में फूलों पत्तियों से नकली खाना बनाकर खेलते हैं, तब वह घर में दाल-चावल पका लेती थी ताकि उसकी मां समय से काम पर निकल सके। जब नन्हें-नन्हें हाथ गुड़ियों से खेलने वाले थे, वह पूरे घर की सफाई करती थी ताकि जब उसकी मां काम से थक कर लौटे तो उन्हें मेहनत ना करनी पड़े। जब ग्रेजुएशन के बाद आगे पढ़ने की बारी आई तो सिर्फ इसलिए काम की तलाश शुरू कर दी ताकि छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई में कोई दिक्कत ना आए। और जब उसकी उम्र के बाकी लोग सैर सपाटा करते हैं वह अपनी पूरी कमाई अपने छोटे भाई बहनों की पढ़ाई पर खर्च करती है ताकि वह अपने पैरों पर खड़े हो सके। कहते हैं जिम्मेदारियां आपको सब कुछ सिखा देती है। इन्हीं जिम्मेदारियों को निभाती हुई और अपने परिवार के प्रति निस्वार्थ प्रेम का उदाहरण पेश करती हैं रांची की ज्योति। अपनी उम्र के 26 वसंत देख चुकी ज्योति का जीवन हमेशा वसंत की तरह खुशनुमा नहीं रहा। बेहद आकर्षक नैन नक्श, आंखों में हजारों अनकही बातें और स्वाभाविक मासूमियत से भरा ज्योति का चेहरा देख कर आप कहीं से भी यह अनुमान नहीं लगा पाएंगे कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितना संघर्ष किया है। बचपन से ही वह काफी होशियार थी। मां ने सोचा गांव के सबसे अच्छे स्कूल में दाखिला करा देना चाहिए। लेकिन उस वक्त उन्हें अपने ही रिश्तेदारों और अन्य कई लोगों की फब्तियां सुननी पड़ी- “ बेटी को कौन पढ़ाता है, बेटी कौन सा कमा कर खिलाएगी।” इन तानों से तंग आकर और अपने दो और बच्चों के साथ ज्योति की मां रांची आ गई। किराए के एक कमरे वाले मकान से असली संघर्ष अब शुरू होने वाला था। ज्योति के पिता अखबार बेचने का काम करते थे। घर में आर्थिक तंगी होने लगी तो मां ने भी एक फैक्ट्री में सिलाई का काम करना शुरू कर दिया। ज्योति ने बचपन से ही यह सब देखा कि किस तरह उसके पिता चाहे कड़कड़ाती ठंड हो या मूसलाधार बारिश, रोजाना कई किलोमीटर साइकिल चलाते हैं ताकि घर में रोटी का इंतजाम हो सके। मां थोड़े से पैसे के लिए दिन में 10 घंटे सिलाई करती है। इन सब का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या फिर घर में अपने घर में छोटे भाई-बहनों की देखभाल, वह हर चीज में निपुण हो गई। जिस सरकारी स्कूल में वह पढ़ती थी, वहां हमेशा ही फर्स्ट आती थी। यह देख कर मां-पिता को भी हौसला मिलता। ज्योति दसवीं की परीक्षा में पूरे स्कूल में पांचवें स्थान पर रही। इसके बाद विज्ञान विषय से बारहवीं की पढ़ाई भी पूरी की। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि करियर के लिए क्या चुने? तब उन्होंने सबसे पहली चीज जो पता लगाई कि किस चीज की पढ़ाई की जाए ताकि उन्हें जल्दी अच्छी नौकरी मिल सके। उन्होंने एक पल के लिए भी यह नहीं सोचा कि उनकी रुचि किस में है। जिस लड़की ने आज तक कभी कंप्यूटर नहीं चलाया था उसने स्नातक के लिए कंप्यूटर एप्लीकेशन विषय का चयन किया क्योंकि इससे उन्हें अच्छे प्लेसमेंट की उम्मीद थी। उन्हें पता चला कि देश में इस वक्त सॉफ्टवेयर इंजीनियर की मांग है। दिक्कतें कम नहीं आई। जब हिंदी मीडियम से पढ़ी लिखी ज्योति कॉलेज जाती तो वहां उन्हें दिखा कि उन्हें अभी और मेहनत करने की जरूरत है। उन्होंने दिन रात एक कर पढ़ाई की और उनकी मेहनत के आगे सभी दिक्कतें बौनी साबित हुई। वह बताती हैं कि उन्होंने इससे पहले कभी कंप्यूटर को हाथ तक नहीं लगाया था। पहली बार स्नातक की पढ़ाई के दौरान कॉलेज में यह मौका मिला। उन्होंने देखा कि किस तरह हिंदी मीडियम से पढ़े विद्यार्थियों को और अधिक मेहनत करनी पड़ती हैं। अपनी मेहनत के बल पर स्नातक के खत्म होते ही ज्योति को टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में प्लेसमेंट मिल गई। सैलरी कम थी पर यह उस घर के लिए सपने के सच होने जैसा था। कोरोना महामारी के दौरान जब उनके पिता अस्पताल में भर्ती थे, ज्योति ने पूरे घर की जिम्मेदारी उठाई। उस वक्त उनकी वजह से पूरा परिवार इस मुसीबत से बाहर निकल पाया। दो साल कोलकाता में टीसीएस में काम करने के बाद वह अपनी बहन की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई। यहां भी उन्होंने अपने बारे में नहीं सोचा। यहां उन्हें विप्रो में बतौर सीनियर एनालिस्ट की पोस्ट पर काम मिल गया। फिलहाल वह गुड़गांव के सबसे रिहायशी इलाके साइबर हब में काम करती हैं। जब वह अपने माता पिता को यहां अपना ऑफिस दिखाने के लिए ले कर आई तो बरसों का संघर्ष उनके आंखों के सामने आ गया। इस चकाचौंध में आज भी वह अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। उनका कहना है कि अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है। उनका सपना है कि वह अपने परिवार को दुनिया की सभी खुशियां दे सके। यह पूछने पर की यह सब करने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, ज्योति कहती हैं “गरीबी ही सबसे बड़ी प्रेरणा थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी तरह मेरे छोटे भाई बहनों को भी पैसों की कमी की वजह से बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़े।” रांची की उस टीन की छत वाली घर से निकल कर यहां तक ज्योति का सफर प्रेरणादायक ही नहीं अनुसरणीय भी है। वह कहती हैं कि मेहनत से सब कुछ संभव है। उनका कहना है कि बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय हमें यह देखना चाहिए कि हमारे हाथ में क्या है और हम जो कर सकते हैं उसमें सौ प्रतिशत देना चाहिए।



भारत में 17वीं लोकसभा चुनाव के दौरान लगभग 67 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान नहीं किया। इसका मतलब यह है कि देश के 91 करोड़ मतदाताओं में से लगभग 30 करोड लोगों ने सरकार चुनने में अपना मत नहीं दिया। इस आंकड़े से यह स्पष्ट है कि देश में चुनाव में दौरान जो प्रतिनिधि चुने गए वह देश की जनता के बहुमत को नहीं दर्शाते थे और जिस सरकार का निर्माण हुआ उसमें पूर्ण रूप से लोगों की राय शामिल नहीं थी। कई विद्वानों ने इस मुद्दे पर यह राय दी है कि देश में मतदान के प्रतिशत को बढ़ाने का एक विकल्प यह हो सकता है कि मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए। सभी 18 वर्ष से ऊपर के आयु के लोगों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि उन्हें चुनाव के दौरान अपना मत देना ही होगा। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि एक कानून के तहत योग्य नागरिकों ने अपना वोट नहीं दिया तो उन्हें सजा देने का प्रावधान होगा। एक अन्य तरीका यह भी हो सकता है कि जो नागरिक अपना वोट देंगे उन्हें किसी भी तरह से सम्मानित कर प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इस प्रक्रिया से जन कल्याण की नीतियां बनाते समय सरकार समाज के उन लोगों के हितों को नजरंदाज नहीं करेगी जो राजनीतिक रूप से कम जागरूक हैं। एक तर्क है भी है कि इससे चुनाव के दौरान पहचान को लेकर होनी वाली धांधलियां भी रुक सकेगी। ऐसा भी कहा गया है कि चुनाव को अनिवार्य करने से देश में राजनीतिक जागरूकता भी बढ़ेगी। दुनिया के 33 देशों में मतदान करना अनिवार्य है। इन देशों में बेल्जियम, स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, अर्जेंटीना जैसे देश शामिल हैं। इन देशों में मतदान ना करने पर सजा का भी प्रावधान है।भारत जैसे देश में जहां मतदान करना या ना करना पूर्णतः मतदाता का निजी फैसला होता है वहीं बेल्जियम में 1893 से ही वोटिंग नहीं करने पर जुर्माने का प्रावधान है। इस तरह सिंगापुर की बात की जाए तो वहां वोट नहीं डालने पर मतदान के अधिकार छीन लिए जाते हैं। ब्राजील में मतदान नहीं किया तो पासपोर्ट जब्त हो जाता है। अगर भारत से तुलना की जाए तो आस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, ब्राजील, सिंगापुर, तुर्की और बेल्जियम जैसे 19 देशों में चुनाव प्रक्रिया लगभग हमारे देश जैसी ही है। लेकिन भारत में इस प्रक्रिया को लागू करने के विपक्ष में भी तर्क दिए जाते हैं। जबरन वोटिंग का विचार लोकतंत्र विरोधी है। मतदान का अधिकार वैकल्पिक है। इसे मजबूरी या प्रलोभन देकर अनिवार्य करना लोकतंत्र के खिलाफ है। मतदान को अनिवार्य करना जागरूक नागरिक की निशानी हो ऐसा भी जरूरी नहीं है। बल्कि इससे मतदान की प्रक्रिया के मैकेनिकल हो जाने का खतरा है। इस बात का एक प्रमाण यह भी है कि जिन देशों में मतदान अनिवार्य है वहां अवैध वोट का प्रतिशत सबसे अधिक पाया गया। चुनाव आयोग ने भी इस मुद्दे पर विचार किया था। आयोग ने यह विचार रखा कि भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मतदान को अनिवार्य करना लगभग असंभव है। देश में मतदान ना करने वाले 30 करोड़ से अधिक लोगों को दंड दे पाना किसी भी तरह से व्यावहारिक नहीं है। इन सब पक्षों को देखते हुए आगे की राह क्या हो सकती है? सबसे जरूरी लोगों में मतदान को लेकर जागरूकता बढ़ाना है। चुनाव आयोग समय समय पर इस तरह के कैंपेन चलाती है। इसे और प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है। स्कूली पाठ्यक्रम में इसे अधिक से अधिक शामिल किया जाना चाहिए। मीडिया भी लोगों में जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।



“आराम से जाओ, वैसे भी तुम लोगों के लिए फ्री ही है।” ये मेरे और मेरे पुरुष सहपाठी के बीच का संवाद था। डीटीसी की बसों में महिलाओं को सफर करने के लिए कोई किराया नहीं चुकाना पड़ता है। दिल्ली में इसकी शुरुआत 2019 में हुई थी। तब से लेकर अब तक लाखों महिलाएं पिंक पास या पिंक टिकट का फायदा उठा चुकी हैं। वो चाहे तो टिकट खरीद सकती हैं, लेकिन खरीदती नहीं हैं। मुफ्तखोरी की आदत लग चुकी है शायद। लेकिन इस योजना को शुरू करने के पीछे क्या उद्देश्य रहे होंगे और क्या ये उद्देश्य पूरे हुए हैं? मुफ्त की ये बस सेवा के शुरू होने के बाद 2019-20 में महिला यात्रियों की संख्या में 25% की बढ़ोतरी हुई, वहीं 2020-21 में 28% और 2021-22 में 33% की बढ़ोतरी हुई। ये महिलाएं बाहर निकलने के लिए बस सेवा मुफ्त होने का ही इंतजार कर रहीं थी या मुफ्त सवारी मिलते ही इन्हें बाहर जाने की आवश्यकता आन पड़ी। संभव है कि दिल्ली के द्वारका में रह रही अफसाना को सिर्फ इसलिए विश्वविद्यालय में स्थित दिल्ली यूनिवर्सिटी जाने की इजाजत नहीं मिल रही थी क्योंकि मेट्रो का किराया बहुत ज्यादा था। या फिर शादीपुर की 55 साल की सरिता को अपने हाथ से बनी मालाओं को सरोजनी नगर जाकर बेचना था, लेकिन किराया देने में ही उसकी सारी कमाई चली जाती। ये सब संभव हो ही नहीं सकता। मुफ्त की सवारी करने के अलावा हम महिलाओं को इन बसों में और भी कई चीजें मुफ्त मिलती है। रोज़ाना खचाखच भरी बस में एक खास तरह से घूरती हुई नजरें या फिर अचानक किसी जगह पर गंदे से स्पर्श का अनुभव। सब फ्री होता है। ऊपर से सीट भी रिजर्व दे दी है महिलाओं को अलग से। “पुरुष भी तो दिन भर काम के बाद थक हार कर ही आते हैं। उनके लिए सीट रिजर्व क्यों नहीं हैं!” “फ्री भी जायेगी और आराम से भी जायेगी, मैंने पैसा दिया है, मैं बैठ कर जाऊंगा।” ये बातें भी अमूमन सुनने को मिल जाती है। इन सब के बाद छेड़खानी का डर और रात को सफर के दौरान लगातार निर्भया की याद, वो खौफ कि कहीं बस का ड्राइवर और मार्शल आपस में मिले हुए तो नहीं हैं। 2023 में होमगार्ड के जवान द्वारा की गई छेड़खानी की घटना भी याद आ जाती है। ये सबकुछ होता है पूरी तरह मुफ्त। आंकड़ों की बात करें देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं से खिलाफ अपराधों की श्रेणी में पहले स्थान पर आती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की माने तो 2023 में हर घंटे देश में 51 महिलाएं किसी अपराध का शिकार हो रही हैं। इनमें ज्यादातर मामले पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के तहत दर्ज किया गए थे जो कुल दर्ज हुए अपराधों का 31.4 प्रतिशत हैं। यह आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं कि इस देश में गृहणियों का सम्मान कितना है। घरेलू हिंसा आम है और इसके पीछे का एक मुख्य कारण यह है कि बाहर जाकर पैसे कमाने वाला पुरुष महिलाओं के खिलाफ इसे अपना हक समझता है। आखिर गृहिणियां करती ही क्या है? द हिंदू की एक रिपोर्ट में बताया गया गया कि देश में लगभग 16 करोड़ महिलाएं गृहिणी हैं। क्या ये पैसे कमाती हैं? नहीं। क्या इन गृहणियों का जीडीपी में योगदान है? नहीं। बस हो या घर मुफ्तखोर हैं सब की सब।



"मैं हर रोज जब सुबह उठती हूं तो अपने आप से यही सवाल करती हूं कि मैं आज समाज के लिए क्या अच्छा कर सकती हूं, मैं आज क्या नया सीख सकती हूं जिससे मैं समाज को बेहतर बनाने में अपना योगदान दे सकूं। और हर रात जब मैं सोने जाती हूं तो यही देखती हूं क्या मुझे इसमें सफलता मिली? मेरे लिए जीवन का मतलब यही है।" ये शब्द शिक्षिका, लेखिका, समाजसेवी और इंफोसिस फाउंडेशन की पूर्व चेयरपर्सन सुधा मूर्ति ने तीन साल पहले दिए गए इंटरव्यू में कहें थे। भारत सरकार द्वारा पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित सुधा मूर्ति को महिला दिवस के मौके पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा राज्यसभा सांसद के तौर पर मनोनीत किया गया। 73 साल की सुधा मूर्ति ने कहा है कि ये उन्हें महिला दिवस पर मिला बहुत बड़ा तोहफा है। देश के लिए काम करने की अब नई जिम्मेदारी मिली है। सुधा मूर्ति इन्फोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति की पत्नी हैं। इस कंपनी को शुरू करने के लिए उन्होंने नारायण मूर्ति को 10 हजार रुपए उधार दिए थे और इस कंपनी की सफलता में उनका अहम योगदान है। निजी जिंदगी में अपनी सादगी के लिए जानी जाने वाली सुधा मूर्ति के पास इन्फोसिस में 0.83 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जिसका मूल्य मौजूदा कीमतों के आधार पर करीब 5,600 करोड़ रुपये है। उनका जन्म कर्नाटक में शिगांव में 19 अगस्त 1950 को हुआ था। सुधा के पिता आर.एच कुलकर्णी पेशे से सर्जन थे और मां विमला कुलकर्णी एक शिक्षिका थी। उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया। यह भी एक दिलचस्प वाकया था। दरअसल, सुधा मूर्ति इंजीनियरिंग कॉलेज में 150 स्टूडेंट्स के बीच दाखिला पाने वाली पहली महिला थीं और वे पढ़ाई के बाद टेल्को कंपनी में काम करने वाली पहली महिला इंजीनियर भी थीं। इन सब के अलावा सुधा मूर्ति का जीवन खुद में ही एक प्रेरणा है। वह गेट्स फाउंडेशन के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं। उन्होंने कई अनाथालय शुरू करने, गांवों के विकास, कर्नाटक के विभिन्न स्कूलों में कंप्यूटर लैब और लाइब्रेरी मुहैया कराने में भी अहम योगदान दिया है। इसके अलावा उन्होंने आठ उपन्यास भी लिखे हैं। बच्चों के लिए लिखी गई उनकी किताबें खूब लोकप्रिय रहे। सुधा मूर्ति कहती हैं कि जीवन में आपको संघर्ष करना ही पड़ेगा। जिंदगी आसान नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि जिंदगी खूबसूरत नहीं है। आपको हर परिस्थिति में खुद पर भरोसा रखना चाहिए। वह कहती हैं अपनों और अपने काम के प्रति निस्वार्थ प्रेम ही उनकी सफलता का राज है।



“महिलाओं का पुरुषों के प्रति चाहत, महिलाओं का जल्दी बदलने वाला मन और स्वाभाविक हृदयहीनता की वजह से अपने पति के प्रति वह धोखेबाज हो सकती हैं। ऐसे में उनको बहुत संभाल कर या फिर बहुत निगरानी में रखना चाहिए।”- मनुस्मृति (15वां नियम) हर वर्ष की तरह बीते 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया गया। इसका उद्देश्य समाज के सभी तबके के लोगों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना और आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करना था। सयुक्त राष्ट्र की ओर से मानवाधिकार दिवस 2023 की थीम स्वतंत्रता, समानता और सभी के लिए न्याय रखी गई थी। इसमें आधी आबादी का जिक्र भी स्वाभाविक है। भारत में महिलाओं को मिले अधिकारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। हालांकि इस देश में जहां आज़ादी के बाद से ही महिलाओं को सरकार चुनने में मत देने का अधिकार दिया गया, लेकिन घरेलू हिंसा जैसे अपराधों पर कानून बनाने में हमें 50 साल लग गए। आज देश आज़ादी के अमृत काल का उत्सव मना रहा है। हमनें 2047 तक देश को एक विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य भी बनाया है। लेकिन क्या यह सब कुछ आधी आबादी के विकास के बिना सम्भव होगा? महिलाओं के लिए चीज़े बदली तो है पर उसकी रफ्तार क्या है? महिलाओं के अधिकारों को लेकर जागरूकता फैलाने का काम कर रही संस्था न्यायदर्शक की संस्थापक ऐडवोकेट हर्षिता सिंघल ने इस मुद्दे पर बातचीत की। हर्षिता कहती हैं “संविधान हो या और भी कई कानून, महिलाओं के पास कई अधिकार हैं। लेकिन जागरूकता की कमी है। इसके कई कारण हैं। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हम एक पराया धन है और जिस घर में हम शादी करके जाएंगे, वही हमारा सब कुछ है। यह बातें हमें 20-25 साल तक घूंट-घूंट कर पिलाई जाती हैं। कोई हमें यह नहीं सिखाता कि हमारे अधिकार क्या हैं, ना ही यह बताता है कि हमें भी आवाज उठाने का हक है। वे हैरानी भरे भाव से कहती हैं, “कई महिलाओं को जब मैं बताती हूं कि सिर्फ मारना घरेलू हिंसा नहीं है, तो वह चौंक जाती हैं। मेंटल अब्यूज़, इक्नॉमिक अब्यूज़, सेक्सुअल अब्यूज़ और फाइनेंशिअल अब्यूज़ भी घरेलू हिंसा का ही रूप है, जिसके खिलाफ महिलाएं बात ही नहीं करती। और अगर पता हो तो भी इस तरह के मामलों को कोर्ट में साबित करना बहुत ही मुश्किल होता है।” घरेलू हिंसा से रक्षा के लिए में 2005 में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम लाया गया था। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन एफ एच एस), 2022 की रिपोर्ट की माने तो देश में अब भी हर तीन में से एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी वजह महिलाओं से जुड़े अपराधों में दंड नहीं मिलना है। वहीं घरेलू हिंसा के ज्यादातर मामले रिपोर्ट ही नहीं होते। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि एक ओर महिलाएं जागरुक नहीं हैं और दूसरी ओर जब तक समाज की सोच में सुधार ना हो तब तक कानून अकेला कोई बदलाव नहीं ला सकता है। जागरूकता फैलाने के लिए आज के दौर में भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है। हर्षिता कहती हैं कि जब वह कंपनियों या किसी ऑर्गेनाइजेशन से इस पर बात करती हैं कि वह महिलाओं को अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए वर्कशॉप करना चाहती हैं तो कंपनियां कहती हैं कि इसकी क्या जरूरत है? क्या इससे झगड़े और बढ़ नहीं जाएंगे? वह निराश होकर कहती हैं,“लोगों की सोच ही यही है और इसलिए यह सब कुछ आज तक चलता आ रहा है।” दिल्ली के मुनिरका में छोटी सी दुकान चला कर जीवन यापन करने वाली सोनी (बदला हुआ नाम) कहती हैं- “अधिकार क्या हैं संविधान क्या है ये मुझे पता नहीं, इसके बारे में कभी किसी ने बताया भी नहीं। बस अपना जीवन जीने के लिए घर से निकल कर काम कर सकती हूं यही मेरे लिए बहुत है।” मनुस्मृति की लिखी हुई बातों की तरह आज भी कई बाधाएं हैं। लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा दिन आएं जब महिलाओं को उनका हक मिले, एक ऐसा माहौल मिले जहां वह अपनी सुरक्षा की चिंता किए बिना घर से बाहर निकल सकें। एक दिन ऐसा हो जब हमें इस विषय पर लिखने की जरूरत ना पड़े।



राजधानी के सभी मुख्य ट्रैफिक सिग्नल पर आपको एक, दो चीज़े सामन्यतः दिख जाती है। गुब्बारे और गाड़ी साफ करने वाली झाड़ू बेचते बच्चे। कभी कभी वो आपको ढोल बजाते और करतब दिखा कर पैसे मांगते भी नजर आएंगे। इसके अलावा एक और चीज जो सामान्य है वह है किन्नर समुदाय के लोगों द्वारा पैसे मांगना। वह लोग अक्सर आपकी गाड़ियों के शीशे के पास आ कर तालियां बजाते हैं और कुछ रुपयों की मांग करते हैं। यह इतना आम है कि हम में से ज्यादातर लोगों ने इस पर ध्यान देना भी छोड़ दिया है। कई बार हम इन्हें दस का नोट थमाकर या अधिकतर नजरंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं। सबसे पहले हमें इस वर्ग के लोगों को समझने की जरूरत है। हमारे आस पास यह धारणा प्रचलित है कि किन्नर और ट्रांसजेंडर शब्द एक ही हैं। लेकिन यह दो अलग पहचान हैं। ट्रांसजेंडर उस स्त्री या पुरुष को कहते हैं जिसकी पहचान जन्मजात लिंग से न होकर दूसरे लिंग के रूप में हो, या जिसने लिंग-परिवर्तन किया हो । वहीं किन्नर बाकी ट्रांसजेंडर लोगों से इस रूप में भिन्न होते हैं कि वे अपने आप को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग नहीं मानते हैं पर तृतीय लिंग यानी थर्ड जेंडर मानते हैं। किन्नर समुदाय के लोग धार्मिक अनुष्ठानों में हिस्सा लेते हैं या उत्सवों में नाच-गान करते हैं। यह लोग गुरु-चेला परम्परा का अनुसरण करते हैं। यह लोग जन्मों और शादियों में नाच-गाकर और जश्न मनाकर अपनी जीविका चलाते हैं। अक्सर दैनिक खर्चों को पूरा करने के लिए इन्हें अन्य तरीकों का सहारा लेना पड़ता है। वर्षों से यह समुदाय मुख्यधारा से जुड़ने की कोशिश कर रहा है। भारत में 2011 की जनगणना से पहले तक ट्रांसजेंडर और किन्नरों की संख्या की कभी गणना नहीं की गई थी। इस जनगणना के आधार पर देश में 48 लाख से ज्यादा भारतीयों ने खुद को ट्रांसजेंडर के तौर पर पहचाना। अब इनकी संख्या में जाहिर तौर पर इजाफा हुआ है। लेकिन इनमें से अधिकतर आज भी सड़कों पर हैं। इनके लिए आजीविका के माध्यम तो हैं लेकिन यह समाज में अवहेलना का शिकार हो रहे हैं। शांता 38 साल की हैं। वह नियमित ही सरोजनी नगर के पास के सिग्नल पर दिख जाती हैं। उन्हें किन्नर होने की वजह से बहुत कम उम्र में ही घर से निकल दिया गया था। वह बताती हैं कि उन्हें याद भी नहीं है कि वह कब से सड़क पर मांगने का काम करने लगी। घर छोड़ने के कई दिन बाद तक उन्हें सड़क पर ही सोना पड़ा। इसके बाद किसी किन्नर की नज़र उन पर पड़ी। वह उन्हें उनकी गुरु के पास ले गई। उसके बाद वह उनके तौर तरीकों को सीख कर पिछले कई सालों से शादियों में नाच गा कर या इस तरह सड़क पर भीख मांग कर अपना गुज़ारा कर रही हैं। यह पूछने पर कि वह कोई और दूसरा काम क्यों नहीं ढूंढती, वह कहती हैं कि पूरी उम्र इसी तरह निकल गई। ना ही उन्होंने कभी पढ़ाई की और ना ही कोई कौशल सीखा। उनका कहना है कि किन्नरों को कोई अपने घर नौकर भी नहीं रखता। आखिर किन्नरों और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है? किन्नरों की सबसे पहली लड़ाई अस्तित्व की है। भारत में सभी तरह के बाइनरी महिलाओं और पुरुषों को तीन कैटेगरी में बांटा जाता है, महिला, पुरुष और अन्य। इस प्रकार ट्रांसजेंडर, इंटरसेक्स और अन्य गैर बाइनरी पहचान रखने वाले लोगों को उनके वास्तविक प्रतिनिधत्व से बाहर रखा गया है। ट्रांसजेंडर एक व्यापक शब्द है जिसमें ट्रांसमेन और ट्रांसवुमेन शामिल हैं। दोनों में अंतर स्पष्ट है लेकिन सार्वजनिक बुनियादी ढांचे तक पहुँचने में उनके सामने आने वाली चुनौतियाँ अलग-अलग हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, टॉयलेट्स की बात करे तो यहां इन लोगों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पब्लिक टॉयलेट्स पर हमेशा महिला या पुरुष लिखा हुआ ही पाया जाता है। यह साफ है कि यहां जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स बहुत कम हैं। 2017 में सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत ट्रांसजेंडर्स को पब्लिक टॉयलेट्स में जाने देने को अनिवार्य किया था। वह लोग यह चुन सकते हैं कि वह महिला या पुरुष में से कौन सी टॉयलेट का उपयोग करना चाहते हैं। इन मांगों को लेकर असम के एक क्षेत्रीय एलजीबीटी समूह के लोगों ने कुछ समय पहले ही #नोमोरहोल्डिंगमाईपी के नाम से एक अभियान चलाया था। उन लोगों का कहना है कि सार्वजनिक जगहों पर मूलभूत सुविधाओं के लिए भी उनका संघर्ष अब तक जारी है। देश के अस्पतालों में ट्रांसजेंडर्स के लिए अलग वार्ड नहीं हैं। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार 20% ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को खास तरह की स्वास्थ्य देखभाल की जरूरत है लेकिन यह जरूरत पूरी नहीं हो पा रही है। अन्य कमियों की ओर देखे तो 2011 की जनगणना के आधार पर इस वर्ग के लोगों में साक्षरता दर 43% है। इसकी तुलना देश के साक्षरता दर(74%) से की जाए तो यह बेहद कम है। इसके अलावा किन्नरों को सामाजिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक रूप से भी कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। अक्सर इनके साथ मारपीट और अभद्रता की जाती है। इसका असर इनके मानसिक स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही है, साथ ही यह लोग समाज की मुख्य धारा से और दूर हो जाते हैं। घर पर किन्नरों के साथ मार पीट और हिंसा दोहराई जाती है। मजबूरन यह लोग घर छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। समाज में यह लोग निरंतर भेदभाव का शिकार होते हैं। इन सभी परेशानियों को ध्यान में रखते हुए संसद में 2019 में “ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019” को पारित किया गया। इससे पहले वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों और उनकी लैंगिक पहचान के बारे में निर्णय लेने के उनके अधिकार को मान्यता दी थी। 2019 में बनाए गए इस कानून के अंतर्गत कई प्रावधान दिए गए हैं। इनमें सबसे प्रमुख है ट्रांसजेंडर व्यक्ति के साथ होने वाले भेदभाव को पूरी तरह से प्रतिबंधित करना। इसमें निम्नलिखित के संबंध में सेवा प्रदान करने से इनकार करना या अनुचित व्यवहार करना शामिल है: (1) शिक्षा (2) रोज़गार (3) स्वास्थ्य सेवा (4) सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध उत्पादों, सुविधाओं और अवसरों तक पहुँच एवं उनका उपभोग (5) कहीं आने-जाने का अधिकार (6) किसी मकान में निवास करने, उसे किराये पर लेने और स्वामित्व हासिल करने का अधिकार (7) सार्वजनिक या निजी पद ग्रहण करने का अवसर। इसके अलावा पहचान का प्रमाण पत्र इस योजना की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति ज़िला मजिस्ट्रेट को आवेदन कर सकता है कि ट्रांसजेंडर के रूप में उसकी पहचान से जुड़ा सर्टिफिकेट जारी किया जाए। इसमें समान अवसर नीति की बात भी कही गई है। प्रत्येक प्रतिष्ठान को कानून के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये समान अवसर नीति तैयार करने के लिये बाध्य किया गया है। इससे समावेशी प्रतिष्ठान बनाने में मदद मिलेगी। समावेश की प्रक्रिया के लिये अस्पतालों और वॉशरूम (यूनिसेक्स शौचालय) में अलग-अलग वार्डों जैसी बुनियादी सुविधाओं के निर्माण की भी आवश्यकता को भी पूरा किया जाएगा। प्रत्येक प्रतिष्ठान को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की शिकायतों को सुनाने के लिये एक व्यक्ति को शिकायत अधिकारी के रूप में नामित करने के लिये बाध्य किया गया है। इस कानून के तहत प्रत्येक राज्य सरकार को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ अपराध की निगरानी के लिये ज़िला पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिदेशक के तहत एक ट्रांसजेंडर संरक्षण सेल का गठन करना होगा। इसमें इस बात का भी उल्लेख है कि सरकार समाज में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पूर्ण समावेश और भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये कदम उठाएगी। वह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के बचाव एवं पुनर्वास तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण एवं स्वरोजगार के लिये कदम उठाएगी, ट्रांसजेंडर संवेदी योजनाओं का सृजन करेगी और सांस्कृतिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करेगी। इसके अलावा सरकार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिये कदम उठाएगी जिसमें अलग एचआईवी सर्विलांस सेंटर, सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी इत्यादि शामिल है। सरकार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के स्वास्थ्य से जुड़े मामलों को संबोधित करने के लिये चिकित्सा पाठ्यक्रम की समीक्षा करेगी और उन्हें समग्र चिकित्सा बीमा योजनाएँ प्रदान करेगी। इन सब के अलावा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संबंध में नीतियाँ, विधान और योजनाएँ बनाने एवं उनका निरीक्षण करने के लिये राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद का गठन किया जाएगा जो केंद्र सरकार को सलाह प्रदान करेगी। यह ट्रांसजेंडर लोगों की शिकायतों का निवारण भी करेगी। इस कानून में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से भीख मंगवाना, बलपूर्वक या बंधुआ मज़दूरी करवाना या सार्वजनिक स्थान का प्रयोग करने से रोकना, परिवार, गाँव इत्यादि में रहने से रोकना, और उनका शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक तथा आर्थिक उत्पीड़न करने को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इन अपराधों के लिये छह महीने और दो वर्ष की सजा का प्रावधान है साथ ही जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। इसी कड़ी में इस समुदाय के लोगों को एक स्वाभिमानी जिंदगी जीने में मदद करने के लिए भारत सरकार ‘स्माइल’ स्कीम लेकर आई है। इस स्कीम के तहत गरिमा गृह बनाए गए हैं। गरिमा गृह का लक्ष्य ट्रांसजेंडर को उनका हक दिलाना और उनके अधिकारों से अवगत करवाना है। उनकी पढ़ाई से लेकर नौकरी दिलवाने तक में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इस वक्त देश में 12 गरिमा गृह संचालित हैं। दिल्ली में इसका संचालन ‘मित्र ट्रस्ट’ कर रहा है। मित्र ट्रस्ट अब तक सैकड़ों ट्रांसजेंडर की जिंदगी को सवार चुका है। यहां हमारी मुलाकात ट्रांसजेंडर्स के लिए एक प्रेरणा बन चुकी दीपिका से हुई। दीपिका कहती हैं कि 2015 से वह मित्र ट्रस्ट के साथ जुड़ी हुई हैं। एक वक्त ऐसा भी था जब उन्हें पैसों के लिए सेक्स वर्क करना पड़ा जो उनकी जिंदगी का सबसे बुरा दौर रहा। पर अब सबकुछ ठीक है। उन्हें अपना लाइफ पार्टनर भी मिल गया है और वह काफ़ी खुश हैं। आज वह मंत्रालय (सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय) के साथ काम कर रही हैं और उन्हें यह पहचान ‘मित्र’ और गरिमा गृह की वजह से ही मिली। गरिमा गृह में उन्हें प्यार और अपना परिवार मिला। उन्होंने सड़क पर भीख मांगने को लेकर कहा, “मुझे नहीं लगता कि कोई भी मजबूरी इतनी बड़ी होती है कि आपको लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़े। आपको यह समझना होगा कि आप किसी से अलग नहीं हैं। आप भी औरों की तरह मेहनत करके पैसे कमा सकते हैं। आप अपनी हॉबी को रोजगार मे बदलने के अवसर तलाशिये। इसके लिए आपको अपने घरों से बाहर निकलना होगा। मेहनत करनी होगी। पढ़ाई-लिखाई करनी चाहिए। अपने अधिकारों को जानकर आगे बढ़ने की कोशिश करे।” वह आगे कहती हैं, “हमें आयुष्मान कार्ड और ट्रांसजेंडर आइडेंटीटी कार्ड जैसी सुविधाएं मिलती है। इसके अलावा पढ़ाई के लिए सरकार हमें बहुत सारी स्कॉलरशिप भी देती हैं। रोजगार मुहैया करवाने में भी सरकार काफी मदद करती है। पर इस सब के लिए आपके घर से बाहर निकलना होगा।” अंततः हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि देश के सभी ट्रांसजेंडर्स और किन्नरों तक जागरूकता फैले। सही मायने में लैंगिक समानता तभी होगी जब हर लिंग के व्यक्ति को समान अधिकार और समान मौके मिलेंगे।



देख रहा है विनोद…”। पंचायत वेब सीरीज का यह लोकप्रिय डायलॉग लोगों की जुबान पर है। इस वेब सीरीज ने पंचायती राज की खूबियों और कमियों पर बेहद दिलचस्प तरीके से रोशनी डाली। वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के हिसाब से भारत की लगभग 65 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। यह तय है कि विकसित भारत के सपने को पूरा करने में पंचायतों की भूमिका अहम होगी। 1992 में देश में पंचायती राज और स्थानीय निकायों की भूमिका को सशक्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के जरिए देश में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण यानी डेमोक्रेटिक डिसेंट्रलाइजेशन को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। पंचायती राज देश में प्रभावी और कुशल योजना बनाने में योगदान दे रहा है। गांवों के लोगों की जरूरतें और महत्वकांक्षाओं को नीति बनाने वालों तक पहुंचाना और उन नीतियों को लागू कराने की पूरी जिम्मेदारी ग्राम पंचायत की होती है। ग्राम पंचायत लोगों की समस्याओं को जमीनी स्तर से समझता है। साथ ही यह पहचान करता है कि गांव के लोगों को किस तरह योजनाओं की जरूरत है और उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं। मनरेगा जैसी योजनाओं को सफल बनाने का श्रेय पंचायती राज को जाता है। सबसे गौर करने वाली बात यह है कि वन साइज फिट्स ऑल दृष्टिकोण से आगे बढ़ कर काम करती है। पंचायती राज की व्यवस्था ने देश में सुशासन सुनिश्चित करने में भी योगदान दिया है। लोगों की भागीदारी और सर्वसम्मति से फैसले लेकर अंतिम छोर पर रह रहे लोगों को भी सशक्त करना ही ग्राम स्वाधीनता का लक्ष्य था। इस व्यवस्था ने महिलाओं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के प्रतिनिधित्व को निर्धारित कर उन्हें सशक्त किया है। इस कड़ी में सफलता के कई उदाहरण भी हैं। गुजरात के व्यारा जिले के छोटे से गांव की मीना बहन अपने गांव की पहली महिला सरपंच हैं। 65 साल बाद उनके गांव का अपना पंचायत बोर्ड है और वह भी पूरी तरह से महिला पंचायत बोर्ड। इस तरह छवि रजावत ग्रामीण राजस्थान का चेहरा बदलने वाली महिला के रूप में प्रसिद्ध हैं। अभिनव परियोजनाओं के साथ, वह सोडा नामक अपने पैतृक गांव में बेहतर पानी, सौर ऊर्जा, पक्की सड़कें, शौचालय और एक बैंक भी लेकर आई हैं। नौकरशाही को अपने रास्ते में न आने देते हुए, उन्होंने अकेले ही अपने गांव में कई परियोजनाओं को सक्षम बनाया है। उन्होंने अमेरिका के न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र में एक गरीबी सम्मेलन को भी संबोधित किया है। इन सब के बीच पंचायती राज कुछ कमियों से भी गुजर रहा है। पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना का सबसे प्रमुख लक्ष्य शासन की शक्तियों और कार्यों का विकेंद्रीकरण करना था, परंतु वर्तमान में अधिकांश राजनीतिक दल और सरकारों के हस्तक्षेप के कारण पंचायती व्यवस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं रही है। पंचायतों को अपनी वित्तीय आवश्यकताओं के लिये राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके कारण पंचायतों की स्वायत्तता प्रभावित होती है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों की व्यवस्था में प्रत्यक्ष रूप से महिलाओं की सक्रिय भूमिका की कमी पंचायती व्यवस्था की सबसे बड़ी असफलता है। देश के अधिकांश भागों में पंचायत स्तर पर जनता तथा जन प्रतिनिधियों में जागरूकता और तकनीकी साक्षरता के अभाव के कारण ग्रामीण जनता को सरकार द्वारा चलाई गई अनेक योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। स्थानीय विकास के लिये आवश्यक योजनाओं के निर्धारण और उनके क्रियान्वयन के लिये पंचायतों का आत्मनिर्भर न होना पंचायती व्यवस्था के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। आज भी भारत की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है पर ज़्यादातर ग्रामीणों के पास अपनी आवासीय संपत्ति के आधिकारिक प्रमाण-पत्र नहीं हैं। संपत्ति के प्रमाणिक आँकड़ों के अभाव में पंचायतों के पास कर निर्धारण और कर वसूल करने के लिये कोई आधार नहीं होता है। इस समस्या से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2020 में स्वामित्व योजना की शुरुआत की। यह योजना पंचायती राज मंत्रालय, राज्यों के पंचायती राज विभाग, राज्य राजस्व विभाग और भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सहयोग से चलाई जाएगी। इस योजना के तहत ड्रोन और अन्य नवीनतम तकनीकों की सहायता से रिहाइशी भूमि का सीमांकन कर ग्रामीण क्षेत्रों में एकीकृत संपत्ति सत्यापन की एक व्यवस्था स्थापित की जाएगी। इसके तहत गाँव की सीमा के भीतर आने वाली प्रत्येक संपत्ति का डिजिटल रूप नक्शा बनाया जाएगा और प्रत्येक राजस्व खंड की सीमा का निर्धारण किया जाएगा। इस योजना के माध्यम से गावों और ग्राम पंचायतों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयासों को आधार प्रदान करने में सहायता प्राप्त होगी। साथ ही संपत्ति कर के माध्यम से ग्राम पंचायतों को आमदनी के एक स्थायी स्रोत और स्थानीय व्यवस्था के लिये अतिरिक्त संसाधन का प्रबंध किया जा सकेगा। इसके अलावा सरकार ने 2023 में ई-ग्राम स्वराज-जीईएम एकीकरण की भी शुरुआत की। इसका उद्देश्य पंचायतों को ई-ग्राम स्वराज प्लेटफॉर्म का लाभ उठाते हुए जीईएम के माध्यम से अपनी वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने में सक्षम बनाना है। यह पूरे क्रेता-विक्रेता पारिस्थितिकी तंत्र को फलने-फूलने में मदद करेगा, जिससे डिजिटल इंडिया कार्यक्रम को मजबूत करने के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और उद्यमशीलता को बड़ा बढ़ावा मिलेगा। जीईएम का मौजूदा उपयोगकर्ता आधार लगभग 60,000 है जिसे चरणबद्ध तरीके से 3 लाख से अधिक तक बढ़ाने की कल्पना की गई है। इसके कई उद्देश्य हैं। इसमें प्रमुख है प्रक्रिया को डिजिटल बनाकर पंचायतों द्वारा खरीद में पारदर्शिता लाना और स्थानीय विक्रेताओं (मालिकों, स्वयं सहायता समूहों, सहकारी समितियों आदि) को इस पर पंजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना क्योंकि पंचायतें बड़े पैमाने पर ऐसे विक्रेताओं से खरीदारी करती हैं। इससे पंचायतों को मानकीकृत करने और प्रतिस्पर्धी दरों पर गुणवत्ता-सुनिश्चित वस्तुओं की डोरस्टेप डिलीवरी तक पहुंच प्राप्त होगी। ई-ग्राम स्वराज प्लेटफॉर्म 2020 में राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर लॉन्च किया गया था। इसे योजना से लेकर ऑनलाइन भुगतान तक पंचायतों के सभी दिन-प्रतिदिन के कामकाज के लिए एकल खिड़की समाधान के रूप में संचालित करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। जियो टैगिंग ऑफ एसेट्स पंचायती राज मंत्रालय ने विकसित किया है, जो उन कार्यों के लिये जियो-टैग के साथ फोटो खींचने में मदद करने के लिये एक मोबाइल-बेस्ड सोल्यूशन है। सेवाओं के मानक के संबंध में अपने नागरिकों के प्रति पंचायती राज व्यवस्था की प्रतिबद्धता पर ध्यान केंद्रित करने के लिये पंचायती राज मंत्रालय ने ‘मेरी पंचायत मेरा अधिकार - जन सेवाएँ हमारे द्वार’ के नारे के साथ सिटीज़न चार्टर की शुरुआत की है। यह दस्तावेज़ों को अपलोड करने के लिये एक मंच प्रदान किया है। नवलेश कुमार किरण बिहार के नवादा जिले के मनकपुर पंचायत के मुखिया हैं। वह कहते हैं कि इन योजनाओं के आने के बाद निश्चित तौर पर कमियां दूर होगी। जियो टैगिंग की मदद से मनरेगा की योजनाओं का निरीक्षण सही तरीके से होगा। अन्य तकनीक जैसे नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सहायता मिलेगी। इस तरह तकनीक ग्राम पंचायत की कमियों को दूर करने में काफी हद तक सक्षम है। गांधी जी के शब्दों में “यदि हम पंचायत राज यानी सच्चे लोकतंत्र के अपने सपने को साकार होते देखेंगे तो हम सबसे दीन और निम्नतम भारतीय को भी दुनिया के सबसे प्रभावशाली भारतीय के ही समान भारत के शासक के रूप में देखेंगे”।



दिल्ली के मुखर्जी नगर से अंदर आते ही आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई देगी वह है कोचिंग संस्थानों के सैकड़ों बड़े बड़े होर्डिंग्स और बोर्डिंग्स। लगभग सभी तख्तियों में आपको आईएएस ऑफिसर की कुर्सी तक पहुंचाने का वादा होता है। और इन सपनों को आंखों में लेकर देश के कोने कोने से लाखों युवा यहां पहुंच जाते हैं। यही हाल दिल्ली के करोल बाग, राजेंद्र नगर, पटेल नगर, और लक्ष्मीनगर का भी है। दिल्ली की इन गलियों में आपको जगह जगह भारत के नक्शे, सुविचारों से भरे पोस्टर्स और अनगिनत किताबों और नोट्स की दुकानें दिखेंगी। इन दुकानों पर नौजवान पूरी शिद्दत से अपने काम की चीज़े तलाशते नजर आ जायेंगे। इनका लक्ष्य सिर्फ एक ही होता है, यूपीएससी सिविल सर्विसेज की एग्जाम को क्लीयर करना और ऑफिसर बनना। पूछने पर यह बताते हैं कि कोई बिहार के बक्सर के छोटे से गांव डुमराव से है, जो अपने पिता के पेंशन से पढ़ाई जारी रख पा रहा है। तो वहीं कोई छत्तीसगढ़ के रायपुर से है जो पिछले पांच सालों से यहां है और जिसे चार बार परीक्षा में निराशा हाथ लग चुकी है। ऐसे हजारों उदाहरण हैं जो 30 की उम्र की दहलीज पर हैं और अब तक इस परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली जैसे महंगे शहर में रहने और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए यह अब भी अपने परिवार पर निर्भर हैं। ये हाल सिर्फ सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारी करने वाले युवाओं का नहीं है। देश में सरकारी नौकरी की चाह में करोड़ों युवा सैकड़ों तरह की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं। इन परीक्षाओं में केंद्र सरकार की ग्रुप A, ग्रुप B, ग्रुप C, ग्रुप D, सहित राज्यों में अफसर के लिए भर्ती, रेलवे भर्ती, पुलिस भर्ती, फौज भर्ती, सरकारी बैंकों में भर्ती, शिक्षक के लिए भर्ती और भी कई परीक्षाएं शामिल है। इन परीक्षाओं में हर साल लाखों युवा शामिल होते हैं। इन परीक्षाओं में सफलता का प्रतिशत कभी कभी एक प्रतिशत भी नहीं होता है। उदाहरण के लिए यूपीएससी सिविल सर्विसेज की बात करे तो हर साल 800 से 900 पदों पर भर्ती के लिए दस लाख से अधिक युवा आवेदन करते हैं। असफल अभ्यर्थी एक बार फिर अगले साल की तैयारी या किसी और परीक्षा के सफर पर निकल पड़ते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इसका जिक्र 2019 में भी किया था। उन्होंने उस वक्त एक रिपोर्ट का जिक्र किया था जिसके तहत रेलवे में 90,000 पदों पर बहाली के लिए 2.5 करोड़ युवाओं ने आवेदन दिया था। ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि इन नौकरियों के लिए कितनी कड़ी प्रतिद्वंदता रहती है। इस तरह की खबरें अक्सर देखने सुनने को मिल जाती है जिनमें यह जिक्र होता है कि किस तरह ग्रुप डी और इस तरह के कम वेतन वाली नौकरियों पर पीएचडी होल्डर्स तक भी आवेदन करते हैं। यह इस बात का सबूत देते हैं कि देश में युवाओं की शिक्षा और नौकरियों में एक स्पष्ट खाई है। दिल्ली में पिछले 8 सालों से रह रहे हर्ष उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव के रहने वाले हैं। बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से में दाखिला लिया। उसके बाद से वह सिविल सर्विसेज की तैयारी में जुट गए। पिछले पांच सालों में मुखर्जी नगर के एक छोटे से कमरे में रोजाना 10 से 12 घंटे पढ़ाई कर जी जान से सफलता के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं। इस दौरान उन्हें कई बार ऐसे खयाल आते हैं कि लाखों की इस भीड़ में वह यह कैसे कर पाएंगे। परिवार में मां, पिताजी के अलावा दो और छोटे भाई बहन भी हैं जिनकी शिक्षा को लेकर वह परेशान रहते हैं। पिताजी किसान हैं। मां सिलाई का काम करती है। लेकिन अब उन्हें यह चिंता सताती है कि आखिर वह कब तक इस परीक्षा की तैयारी में लगे रहेंगे जिसमें यह भी तय नहीं है कि उन्हें सफलता मिलेगी ही। क्या हर्ष की तरह ऐसे परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवा बेरोजगार हैं? इनकी इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? वह इस तरह की स्थिति में रहने को क्यों मजबूर है? अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार नौकरी से बाहर होना, काम के लिए उपलब्ध होना और सक्रिय रूप से रोजगार की तलाश करना बेरोजगारी का हिस्सा है। इसमें एक पहलू यह भी है कि सक्रिय रूप से काम की तलाश नहीं करने वालों को बेरोजगार नहीं माना जाता है। छात्र और अवैतनिक घरेलू कामगार को श्रम बल से बाहर के रूप में वर्गीकृत किया गया है। बेरोजगारी दर की गणना बेरोजगारों और श्रम शक्ति के अनुपात के रूप में की जाती है। यदि कोई अर्थव्यवस्था पर्याप्त नौकरियाँ पैदा नहीं कर रही है, या यदि लोग काम की तलाश न करने का निर्णय लेते हैं, तो बेरोजगारी दर गिर सकती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 65% पढ़े लिखे युवा बेरोजगार हैं। इसका एक मुख्य कारण युवाओं का सरकारी नौकरी की चाह भी है। नौकरी की तुलना में अभ्यर्थियों की संख्या बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए पिछले आठ सालों में केंद्र सरकार की 7 लाख 22 हजार पदों पर भर्ती के लिए 22 करोड़ से अधिक आवेदन आएं। युवाओं का सरकारी नौकरी के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? बिहार के सत्यदेव भी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं। यूपीएससी के अलावा उन्होंने बीपीएससी की परीक्षा भी दी है। वह बताते हैं बिहार जैसे राज्य में संसाधनों की कमी है। ना पढ़ाई के ज्यादा अवसर मिलते हैं, और ना ही कोई और दूसरा विकल्प दिखता है। प्राइवेट कंपनियां निवेश नहीं करती हैं। ना ही सरकार की तरफ से इस पर ध्यान दिया जाता है। बिहार में स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए या बिजनेस की ग्रोथ के लिए युवाओं तक कोई योजना नहीं पहुंचती है। ऐसे में सरकारी नौकरी की चाह लाजमी है। ज्यादातर मध्यम वर्ग के बच्चों को अपने भविष्य के लिए सबसे सही यही विकल्प दिखता है। युवा सोचते हैं कि इससे उनकी परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकती है। सत्यदेव आगे बताते हैं कि सालों साल तैयारी में लगे रहना आसान नहीं है। लेकिन जब कोई युवा सोच लेता है कि उसे एक सरकारी नौकरी लेनी है तो उसके बाद उसके साथ साथ कई लोगों की उम्मीदें जुड़ जाती है। ऐसे में हार मानने का विकल्प नहीं होता है। आने वाले दिनों में देश के विकास में युवाओं का अहम योगदान होगा। भारत का जनसांख्यिकी लाभांश यानी डेमोग्राफिक डिवीडेंड वर्ष 2041 के आसपास चरम पर होगा। इस दौरान कामकाजी उम्र वालों की जनसंख्या 59 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। देश के विकास के लिए यह बेहद जरूरी है कि इसका पूर्णतः लाभ उठाया जाए। लेकिन इस तरह युवाओं का श्रम बल से बाहर होना चिंता का विषय है। इसके लिए समाधान क्या हो सकते हैं? कुछ मुख्य बिंदुओं से समझने का प्रयत्न करते हैं। पहला, देश में गुणवत्तापूर्ण और कौशलपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देना। यूनिवर्सिटी और ट्रेनिंग संस्थानों के पाठ्यक्रम को आज के दौर की नौकरियों की जरूरत के हिसाब से तैयार करना ही सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरा, देश में स्टार्टअप सिस्टम को बढ़ावा देना और युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना। सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया जैसी कई योजनाएं भी हैं। पर इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि इसका लाभ सिर्फ कुछ शहर के या कुछ वर्ग के लोगों को ही ना मिले। इसी से जुड़ी हुई तीसरी कोशिश यह होनी चाहिए कि देश में क्षेत्रीय असमानता की खाई को कम किया जाए। महाराष्ट्र, कर्नाटक और दिल्ली जैसे राज्यों के मॉडल को बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्वी राज्यों में भी दोहराने की जरूरत है। चौथा, सरकारी नौकरियों की भर्ती को नियमित करना। पेपर लीक, भर्ती में फर्जीवाड़ा, सालों तक परीक्षाओं का टलना और अंत में ली गई परीक्षाएं भी रद्द कर दी जाती है। ऐसे में जो युवा आस लगा कर परीक्षा में अपना सबकुछ झोंक देते हैं, उनका इंतजार और बढ़ जाता है। इसीलिए इन भर्तियों को नियमित करने की आवश्यकता है। अंततः इस रिपोर्ट के जरिए यह तय है कि सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे युवाओं की मुश्किलें कम नहीं हैं। भारत के विकास की यात्रा में युवाओं की क्षमता और कौशल को सही दिशा में आगे ले जाना सबसे महत्वपूर्ण है।



शाहरुख, सिनेमा, और तीन दशकों से चमकता यह सितारा 'आय एम नॉट हेयर टू कम्पीट, आय एम हेयर टू रूल।' (मैं यहां किसी से जीतने नहीं आया हूँ, मैं यहां राज करने आया हूँ। यह चंद पंक्तियां फिल्मी दुनिया के बादशाह शाहरुख खान के बारे में बहुत कुछ बयां करती है। एक साक्षात्कार में जब शाहरुख से यह पूछा गया कि वह अपना प्रतिद्वंदी किसे मानते हैं, उन्होंने यह जवाब दिया। बहुत कम लोग जानते हैं कि 2 नवंबर 1965 को नई दिल्ली के मध्यमवर्गी परिवार में जन्में शाहरुख की दिलचस्पी पहले स्पोर्ट्स में थी। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ ऐसा लिखा था, जिसकी कल्पना उन्होंने भी नहीं की थी। कंधे पर चोट लगने की वजह से वह खेल से दूर हो गए और थिएटर करने लगे। यहीं से ऐक्टिंग की शुरुआत हुई और फिर देखते ही देखते वह सिर्फ बॉलीवुड ही नहीं, लोगों के दिलों पर भी छा गए। दिल्ली से हन्सराज कॉलेज से इक्नॉमिक्स में स्नातक किया और फिर जामिया मिलिया इस्लामिया से मास मीडिया की पढ़ाई की। हालांकि शाहरुख ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और पर्दे की दुनिया में कदम रखा। टेलीविजन पर पहले 'फौजी', फिर 'सर्कस' और फिर 'इडियट' जैसे शोज़ में शाहरुख ने सहज अभिनय किया तो फिल्मों से भी प्रस्ताव आने लगे। अभिनेत्री हेमा मालिनी के निर्देशन में बन रही फिल्म 'दिल आशना है' के लिए शाहरुख खान को चुना गया। इसकी शूटिंग भी शुरू हो गई । पर किसी कारणवश फिल्म रिलीज नही हो पाई । इस दौरान एक और फिल्म की शूटिंग हो गई थी और वह बन गई शाहरुख की पहली फिल्म। नाम था 'दीवाना'। जून 1992 में रिलीज हुई ऋषी कपूर और उस वक्त की सबसे जानी मानी अभिनेत्री दिव्या भारती जैसे कलाकारों से सजी इस फिल्म में शाहरुख का किरदार साइड रोल का था। पर इस फिल्म में अपने चॉकलेटी लुक्स और रोमांस करने के अन्दाज़ से शाहरुख लोकप्रिय हो गए । इंडस्ट्री को एक नया हीरो मिल गया। फिर एक कर बाद फिल्में शाहरुख का इंतज़ार करने लगी। चमत्कार, राजू बन गया जेंटलमैन जैसी फिल्मों से शुरुआत करने के बाद शाहरुख को असली प्रसिद्धि मिली एंटी हीरो कैरेक्टर से। डर और बाजीगर जैसी फिल्में सुपरहिट साबित हुई। इसके बाद रोमांटिक फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ। 1995 के बाद सुपरहिट फिल्मों का सिलसिला रुका नही। इस साल आदित्य चोपड़ा द्वारा निर्देशित, काजोल के साथ आई दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ने तो सफलता का इतिहास लिख दिया। फिल्म मुंबई के मराठा मन्दिर हॉल में 25 साल से ज्यादा समय तक लगी रही। इसके बाद कुछ कुछ होता है, स्वदेश, दिल से, वीर जारा, कभी खुशी कभी गम, कल हो ना हो, मैं हूं ना, कभी अलविदा ना कहना सहित 90 से ज्यादा फ़िल्में शाहरुख की कामयाबी की कहानी बयां करते हैं। 2002 में रिलीज हुई फिल्म देवदास और 2011 में आई माय नेम इज़ खान से शाहरुख ने फिल्म समीक्षकों को भी अपनी अभिनय का लोहा मनवाया। लेकिन फ़िल्मों से इतर शाहरुख अपने फैन्स के बीच अपनी विनम्रता, मजाकिया अन्दाज़, और सहजता के लिए जाने जाते है। कोई भी सह कलाकार उनके बारे में यहीं कहता है कि शाहरुख जिस तरह महिलाओं की इज्जत करते हैं, उन्हें जो सम्मान देते है, वह काबिले तारीफ है। बीते 2 नवंबर को शाहरुख ने अपना 58वां जन्मदिन मनाया।उम्र के इस पड़ाव पर और कैमरे के सामने 3 दशक से ज्यादा का समय बिताने के बाद भी शाहरुख आज भी उतने ही मेहनत, लगन और ईमानदारी से काम करतें हैं। इस बात को हाल ही में रिलीज हुई उनकी दो फिल्मों ने साबित भी कर दिया। पहले जवान और फिर पठान ने 1000 करोड़ से ज्यादा का कारोबार किया। इन फ़िल्मों ने बॉलीवुड की डूबती अर्थव्यस्था में भी नई जान फूंक दी। 14 फिल्मफेयर अवॉर्ड और भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से नवाजे गए शाहरुख यहीं मानते हैं कि उनकी असली पूंजी उनका परिवार और उनके लाखों फैन्स हैं। एक साक्षात्कार में शाहरुख कहतें हैं- 'अगर कामयाब बनना है तो नींद, खाना पीना, आराम सब त्याग दो। यह सब बकवास है कि आप 8 घण्टे सोइये, आराम करिए। बिना संघर्ष के सफलता नही मिलती है'।।।

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