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मुफ्तखोर महिलाएं

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मुफ्तखोर महिलाएं

“आराम से जाओ, वैसे भी तुम लोगों के लिए फ्री ही है।” ये मेरे और मेरे पुरुष सहपाठी के बीच का संवाद था। डीटीसी की बसों में महिलाओं को सफर करने के लिए कोई किराया नहीं चुकाना पड़ता है। दिल्ली में इसकी शुरुआत 2019 में हुई थी। तब से लेकर अब तक लाखों महिलाएं पिंक पास या पिंक टिकट का फायदा उठा चुकी हैं। वो चाहे तो टिकट खरीद सकती हैं, लेकिन खरीदती नहीं हैं। मुफ्तखोरी की आदत लग चुकी है शायद। लेकिन इस योजना को शुरू करने के पीछे क्या उद्देश्य रहे होंगे और क्या ये उद्देश्य पूरे हुए हैं? मुफ्त की ये बस सेवा के शुरू होने के बाद 2019-20 में महिला यात्रियों की संख्या में 25% की बढ़ोतरी हुई, वहीं 2020-21 में 28% और 2021-22 में 33% की बढ़ोतरी हुई। ये महिलाएं बाहर निकलने के लिए बस सेवा मुफ्त होने का ही इंतजार कर रहीं थी या मुफ्त सवारी मिलते ही इन्हें बाहर जाने की आवश्यकता आन पड़ी। संभव है कि दिल्ली के द्वारका में रह रही अफसाना को सिर्फ इसलिए विश्वविद्यालय में स्थित दिल्ली यूनिवर्सिटी जाने की इजाजत नहीं मिल रही थी क्योंकि मेट्रो का किराया बहुत ज्यादा था। या फिर शादीपुर की 55 साल की सरिता को अपने हाथ से बनी मालाओं को सरोजनी नगर जाकर बेचना था, लेकिन किराया देने में ही उसकी सारी कमाई चली जाती। ये सब संभव हो ही नहीं सकता। मुफ्त की सवारी करने के अलावा हम महिलाओं को इन बसों में और भी कई चीजें मुफ्त मिलती है। रोज़ाना खचाखच भरी बस में एक खास तरह से घूरती हुई नजरें या फिर अचानक किसी जगह पर गंदे से स्पर्श का अनुभव। सब फ्री होता है। ऊपर से सीट भी रिजर्व दे दी है महिलाओं को अलग से। “पुरुष भी तो दिन भर काम के बाद थक हार कर ही आते हैं। उनके लिए सीट रिजर्व क्यों नहीं हैं!” “फ्री भी जायेगी और आराम से भी जायेगी, मैंने पैसा दिया है, मैं बैठ कर जाऊंगा।” ये बातें भी अमूमन सुनने को मिल जाती है। इन सब के बाद छेड़खानी का डर और रात को सफर के दौरान लगातार निर्भया की याद, वो खौफ कि कहीं बस का ड्राइवर और मार्शल आपस में मिले हुए तो नहीं हैं। 2023 में होमगार्ड के जवान द्वारा की गई छेड़खानी की घटना भी याद आ जाती है। ये सबकुछ होता है पूरी तरह मुफ्त। आंकड़ों की बात करें देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं से खिलाफ अपराधों की श्रेणी में पहले स्थान पर आती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की माने तो 2023 में हर घंटे देश में 51 महिलाएं किसी अपराध का शिकार हो रही हैं। इनमें ज्यादातर मामले पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के तहत दर्ज किया गए थे जो कुल दर्ज हुए अपराधों का 31.4 प्रतिशत हैं। यह आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं कि इस देश में गृहणियों का सम्मान कितना है। घरेलू हिंसा आम है और इसके पीछे का एक मुख्य कारण यह है कि बाहर जाकर पैसे कमाने वाला पुरुष महिलाओं के खिलाफ इसे अपना हक समझता है। आखिर गृहिणियां करती ही क्या है? द हिंदू की एक रिपोर्ट में बताया गया गया कि देश में लगभग 16 करोड़ महिलाएं गृहिणी हैं। क्या ये पैसे कमाती हैं? नहीं। क्या इन गृहणियों का जीडीपी में योगदान है? नहीं। बस हो या घर मुफ्तखोर हैं सब की सब।

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जागृति

प्रशिक्षु पत्रकार, भारतीय जन संचार संस्थान।