“महिलाओं का पुरुषों के प्रति चाहत, महिलाओं का जल्दी बदलने वाला मन और स्वाभाविक हृदयहीनता की वजह से अपने पति के प्रति वह धोखेबाज हो सकती हैं। ऐसे में उनको बहुत संभाल कर या फिर बहुत निगरानी में रखना चाहिए।”- मनुस्मृति (15वां नियम) हर वर्ष की तरह बीते 10 दिसंबर को विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया गया। इसका उद्देश्य समाज के सभी तबके के लोगों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करना और आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करना था। सयुक्त राष्ट्र की ओर से मानवाधिकार दिवस 2023 की थीम स्वतंत्रता, समानता और सभी के लिए न्याय रखी गई थी। इसमें आधी आबादी का जिक्र भी स्वाभाविक है। भारत में महिलाओं को मिले अधिकारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। हालांकि इस देश में जहां आज़ादी के बाद से ही महिलाओं को सरकार चुनने में मत देने का अधिकार दिया गया, लेकिन घरेलू हिंसा जैसे अपराधों पर कानून बनाने में हमें 50 साल लग गए। आज देश आज़ादी के अमृत काल का उत्सव मना रहा है। हमनें 2047 तक देश को एक विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य भी बनाया है। लेकिन क्या यह सब कुछ आधी आबादी के विकास के बिना सम्भव होगा? महिलाओं के लिए चीज़े बदली तो है पर उसकी रफ्तार क्या है? महिलाओं के अधिकारों को लेकर जागरूकता फैलाने का काम कर रही संस्था न्यायदर्शक की संस्थापक ऐडवोकेट हर्षिता सिंघल ने इस मुद्दे पर बातचीत की। हर्षिता कहती हैं “संविधान हो या और भी कई कानून, महिलाओं के पास कई अधिकार हैं। लेकिन जागरूकता की कमी है। इसके कई कारण हैं। बचपन से ही हमें सिखाया जाता है कि हम एक पराया धन है और जिस घर में हम शादी करके जाएंगे, वही हमारा सब कुछ है। यह बातें हमें 20-25 साल तक घूंट-घूंट कर पिलाई जाती हैं। कोई हमें यह नहीं सिखाता कि हमारे अधिकार क्या हैं, ना ही यह बताता है कि हमें भी आवाज उठाने का हक है। वे हैरानी भरे भाव से कहती हैं, “कई महिलाओं को जब मैं बताती हूं कि सिर्फ मारना घरेलू हिंसा नहीं है, तो वह चौंक जाती हैं। मेंटल अब्यूज़, इक्नॉमिक अब्यूज़, सेक्सुअल अब्यूज़ और फाइनेंशिअल अब्यूज़ भी घरेलू हिंसा का ही रूप है, जिसके खिलाफ महिलाएं बात ही नहीं करती। और अगर पता हो तो भी इस तरह के मामलों को कोर्ट में साबित करना बहुत ही मुश्किल होता है।” घरेलू हिंसा से रक्षा के लिए में 2005 में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम लाया गया था। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन एफ एच एस), 2022 की रिपोर्ट की माने तो देश में अब भी हर तीन में से एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी वजह महिलाओं से जुड़े अपराधों में दंड नहीं मिलना है। वहीं घरेलू हिंसा के ज्यादातर मामले रिपोर्ट ही नहीं होते। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि एक ओर महिलाएं जागरुक नहीं हैं और दूसरी ओर जब तक समाज की सोच में सुधार ना हो तब तक कानून अकेला कोई बदलाव नहीं ला सकता है। जागरूकता फैलाने के लिए आज के दौर में भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है। हर्षिता कहती हैं कि जब वह कंपनियों या किसी ऑर्गेनाइजेशन से इस पर बात करती हैं कि वह महिलाओं को अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए वर्कशॉप करना चाहती हैं तो कंपनियां कहती हैं कि इसकी क्या जरूरत है? क्या इससे झगड़े और बढ़ नहीं जाएंगे? वह निराश होकर कहती हैं,“लोगों की सोच ही यही है और इसलिए यह सब कुछ आज तक चलता आ रहा है।” दिल्ली के मुनिरका में छोटी सी दुकान चला कर जीवन यापन करने वाली सोनी (बदला हुआ नाम) कहती हैं- “अधिकार क्या हैं संविधान क्या है ये मुझे पता नहीं, इसके बारे में कभी किसी ने बताया भी नहीं। बस अपना जीवन जीने के लिए घर से निकल कर काम कर सकती हूं यही मेरे लिए बहुत है।” मनुस्मृति की लिखी हुई बातों की तरह आज भी कई बाधाएं हैं। लेकिन हम उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा दिन आएं जब महिलाओं को उनका हक मिले, एक ऐसा माहौल मिले जहां वह अपनी सुरक्षा की चिंता किए बिना घर से बाहर निकल सकें। एक दिन ऐसा हो जब हमें इस विषय पर लिखने की जरूरत ना पड़े।
लद्दाख: अस्थिरता और आंदोलन के बीच छठी अनुसूची में शामिल होने की जद्दोजहद
लद्दाख। भारत के इस केंद्र शासित प्रदेश का नाम सुन कर आपने मन में क्या छवि उभरती है? दर्शनीय पहाड़ों और चट्टानों से घिरा हुआ वो मनमोहक दृश्य, उन पहाड़ों पर छनकर इंद्रधनुषी चित्र बनाती सूरज की किरणें, प्राचीन मठों की शांति, बाइक राइड वाली लंबी और रोमांचक सड़के और भी बहुत कुछ। लेकिन लद्दाख में इस वक्त हालात ठीक नहीं हैं। क्यों लद्दाख की शांति को लगी है नजर? क्या कुछ ठीक नहीं है लद्दाख में और इन सब के बीच क्यों चर्चा में हैं मशहूर वैज्ञानिक सोनम वांगचुक। इन सब सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। लद्दाख में सब कुछ ठीक नहीं है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने और लद्दाख को संविधान के छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। और इन लोगों में एक नाम जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है मशहूर पर्यावरणविद सोनम वांगचुक का।सोनम वांगचुक उस वक्त काफी सुर्खियों में आए थे जब मशहूर फिल्म थ्री इडियट में आमिर खान ने उनका रोल निभाया था। लेकिन इस बार वजह कुछ और है। रैमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित सोनम वांगचुक ने पिछले दिनों लेह में 21 दिनों का आमरण अनशन किया था। बीते 6 मार्च को उन्होंने '#SAVELADAKH, #SAVEHIMALAYAS' के अभियान के साथ यह आमरण अनशन शुरू किया था। कड़ाके की ठंड के बीच यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब केंद्र सरकार और लेह स्थित कारगिल डेमोक्रेटिक अलायन्स के प्रतिनिधियों के बीच की बातचीत डेडलॉक की स्थिति पर पहुंच गई। ये डेडलॉक मुख्यतः चार मांगों को लेकर था। सरकार से उनकी कुछ मांगे हैं। दरअसल 2019 में धारा 370 के प्रभाव के खत्म होने के बाद जम्मू कश्मीर राज्य दो हिस्सों में बट गया था। जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया था। लेकिन अब लद्दाख के लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार उन्हें भूल गई है। कई बार उन्हें यह भरोसा दिलवाया गया कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। चुनावी वादों में भी इसका जिक्र हुआ। लेकिन अब तक उनकी मांगे पूरी नहीं हुई। उनकी प्रमुख मांग यह है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलें। इसके अलावा लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। एक अन्य मांग यह भी है कि लेह और करगिल के लिए अलग अलग लोकसभा सीट सुनिश्चित की जाए। इसके अलावा लद्दाख में अलग स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की व्यवस्था की जाए। अब जानते हैं कि यह मांगे क्यों उठ रही हैं। छठी अनुसूची के किसी भी इलाके में अलग तरह की स्वायत्ता होती है। संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) में विशेष व्यवस्था दी गई है। जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होने पर लद्दाख के पास यह विशेष अधिकार था। पूर्वोत्तर के कई राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में आज भी यह विशेष व्यवस्था लागू है। इसका फायदा यह है कि यहां इनका अपना प्रशासन है। इसे लागू होने के बाद खास इलाके में कामकाज को सामान्य बनाने के इरादे से स्वायत्त जिले बनाए जा सकते हैं। इनमें 30 सदस्य रखे जाते हैं। चार सदस्य राज्यपाल नामित करते हैं। बाकी स्थानीय जनता से चुनकर आते हैं। इन जिलों में बिना जिला पंचायत की अनुमति के कुछ नहीं हो सकता। यह सब तभी संभव है जब केंद्र सरकार इन्हें संविधान के मुताबिक यह अधिकार देगी। दूसरी मांग के पीछे भी कारण है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा बची हुई है लेकिन लद्दाख से विधायक नहीं चुने जाने का प्रावधान किया गया है। पहले यहां से चार एमएलए चुनकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व करते थे। लोगों के आक्रोश का एक बड़ा कारण यह भी है। इनका आरोप है कि अब उनकी बात सरकार तक पहुंचाने का कोई उचित माध्यम नहीं है। जब से नई व्यवस्था लागू हुई तब से सरकारी नौकरियों का संकट बढ़ गया है। पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के माध्यम से अफसरों की भर्तियाँ होती थीं तो लद्दाख को भी मौका मिलता था। आंदोलनकारियों का आरोप है कि बीते पांच साल में राजपत्रित पदों पर एक भी भर्ती लद्दाख से नहीं हुई है। गैर-राजपत्रित पदों पर छिटपुट भर्तियों की जानकारी जरूर सामने आई है। पर, लद्दाख में बेरोजगारी बढ़ी है। पढे-लिखे उच्च शिक्षित लोग छोटे-छोटे व्यापार करने को मजबूर हैं। बेहद कम आबादी होने की वजह से बिक्री न के बराबर होती है। दुकानें बंद करने की मजबूरी आन पड़ी है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर सोनम वांगचुक का कहना है कि केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने के बाद से लद्दाख में उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाने का खतरा है। इससे यहां कि नाजुक भगौलिक परिस्थिति और पर्यावरण को बेहद खतरा है। आने वाले दिनों में इस तरह के अनशन को और आगे बढ़ाने की बात भी चल रही है।
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