दिल्ली के मुखर्जी नगर से अंदर आते ही आपको सबसे पहले जो चीज दिखाई देगी वह है कोचिंग संस्थानों के सैकड़ों बड़े बड़े होर्डिंग्स और बोर्डिंग्स। लगभग सभी तख्तियों में आपको आईएएस ऑफिसर की कुर्सी तक पहुंचाने का वादा होता है। और इन सपनों को आंखों में लेकर देश के कोने कोने से लाखों युवा यहां पहुंच जाते हैं। यही हाल दिल्ली के करोल बाग, राजेंद्र नगर, पटेल नगर, और लक्ष्मीनगर का भी है। दिल्ली की इन गलियों में आपको जगह जगह भारत के नक्शे, सुविचारों से भरे पोस्टर्स और अनगिनत किताबों और नोट्स की दुकानें दिखेंगी। इन दुकानों पर नौजवान पूरी शिद्दत से अपने काम की चीज़े तलाशते नजर आ जायेंगे। इनका लक्ष्य सिर्फ एक ही होता है, यूपीएससी सिविल सर्विसेज की एग्जाम को क्लीयर करना और ऑफिसर बनना। पूछने पर यह बताते हैं कि कोई बिहार के बक्सर के छोटे से गांव डुमराव से है, जो अपने पिता के पेंशन से पढ़ाई जारी रख पा रहा है। तो वहीं कोई छत्तीसगढ़ के रायपुर से है जो पिछले पांच सालों से यहां है और जिसे चार बार परीक्षा में निराशा हाथ लग चुकी है। ऐसे हजारों उदाहरण हैं जो 30 की उम्र की दहलीज पर हैं और अब तक इस परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली जैसे महंगे शहर में रहने और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए यह अब भी अपने परिवार पर निर्भर हैं। ये हाल सिर्फ सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारी करने वाले युवाओं का नहीं है। देश में सरकारी नौकरी की चाह में करोड़ों युवा सैकड़ों तरह की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं। इन परीक्षाओं में केंद्र सरकार की ग्रुप A, ग्रुप B, ग्रुप C, ग्रुप D, सहित राज्यों में अफसर के लिए भर्ती, रेलवे भर्ती, पुलिस भर्ती, फौज भर्ती, सरकारी बैंकों में भर्ती, शिक्षक के लिए भर्ती और भी कई परीक्षाएं शामिल है। इन परीक्षाओं में हर साल लाखों युवा शामिल होते हैं। इन परीक्षाओं में सफलता का प्रतिशत कभी कभी एक प्रतिशत भी नहीं होता है। उदाहरण के लिए यूपीएससी सिविल सर्विसेज की बात करे तो हर साल 800 से 900 पदों पर भर्ती के लिए दस लाख से अधिक युवा आवेदन करते हैं। असफल अभ्यर्थी एक बार फिर अगले साल की तैयारी या किसी और परीक्षा के सफर पर निकल पड़ते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने इसका जिक्र 2019 में भी किया था। उन्होंने उस वक्त एक रिपोर्ट का जिक्र किया था जिसके तहत रेलवे में 90,000 पदों पर बहाली के लिए 2.5 करोड़ युवाओं ने आवेदन दिया था। ये आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि इन नौकरियों के लिए कितनी कड़ी प्रतिद्वंदता रहती है। इस तरह की खबरें अक्सर देखने सुनने को मिल जाती है जिनमें यह जिक्र होता है कि किस तरह ग्रुप डी और इस तरह के कम वेतन वाली नौकरियों पर पीएचडी होल्डर्स तक भी आवेदन करते हैं। यह इस बात का सबूत देते हैं कि देश में युवाओं की शिक्षा और नौकरियों में एक स्पष्ट खाई है। दिल्ली में पिछले 8 सालों से रह रहे हर्ष उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव के रहने वाले हैं। बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से में दाखिला लिया। उसके बाद से वह सिविल सर्विसेज की तैयारी में जुट गए। पिछले पांच सालों में मुखर्जी नगर के एक छोटे से कमरे में रोजाना 10 से 12 घंटे पढ़ाई कर जी जान से सफलता के लिए जद्दोजहद में जुटे हैं। इस दौरान उन्हें कई बार ऐसे खयाल आते हैं कि लाखों की इस भीड़ में वह यह कैसे कर पाएंगे। परिवार में मां, पिताजी के अलावा दो और छोटे भाई बहन भी हैं जिनकी शिक्षा को लेकर वह परेशान रहते हैं। पिताजी किसान हैं। मां सिलाई का काम करती है। लेकिन अब उन्हें यह चिंता सताती है कि आखिर वह कब तक इस परीक्षा की तैयारी में लगे रहेंगे जिसमें यह भी तय नहीं है कि उन्हें सफलता मिलेगी ही। क्या हर्ष की तरह ऐसे परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवा बेरोजगार हैं? इनकी इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? वह इस तरह की स्थिति में रहने को क्यों मजबूर है? अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार नौकरी से बाहर होना, काम के लिए उपलब्ध होना और सक्रिय रूप से रोजगार की तलाश करना बेरोजगारी का हिस्सा है। इसमें एक पहलू यह भी है कि सक्रिय रूप से काम की तलाश नहीं करने वालों को बेरोजगार नहीं माना जाता है। छात्र और अवैतनिक घरेलू कामगार को श्रम बल से बाहर के रूप में वर्गीकृत किया गया है। बेरोजगारी दर की गणना बेरोजगारों और श्रम शक्ति के अनुपात के रूप में की जाती है। यदि कोई अर्थव्यवस्था पर्याप्त नौकरियाँ पैदा नहीं कर रही है, या यदि लोग काम की तलाश न करने का निर्णय लेते हैं, तो बेरोजगारी दर गिर सकती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 65% पढ़े लिखे युवा बेरोजगार हैं। इसका एक मुख्य कारण युवाओं का सरकारी नौकरी की चाह भी है। नौकरी की तुलना में अभ्यर्थियों की संख्या बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए पिछले आठ सालों में केंद्र सरकार की 7 लाख 22 हजार पदों पर भर्ती के लिए 22 करोड़ से अधिक आवेदन आएं। युवाओं का सरकारी नौकरी के प्रति इतना आकर्षण क्यों है? बिहार के सत्यदेव भी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे हैं। यूपीएससी के अलावा उन्होंने बीपीएससी की परीक्षा भी दी है। वह बताते हैं बिहार जैसे राज्य में संसाधनों की कमी है। ना पढ़ाई के ज्यादा अवसर मिलते हैं, और ना ही कोई और दूसरा विकल्प दिखता है। प्राइवेट कंपनियां निवेश नहीं करती हैं। ना ही सरकार की तरफ से इस पर ध्यान दिया जाता है। बिहार में स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए या बिजनेस की ग्रोथ के लिए युवाओं तक कोई योजना नहीं पहुंचती है। ऐसे में सरकारी नौकरी की चाह लाजमी है। ज्यादातर मध्यम वर्ग के बच्चों को अपने भविष्य के लिए सबसे सही यही विकल्प दिखता है। युवा सोचते हैं कि इससे उनकी परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकती है। सत्यदेव आगे बताते हैं कि सालों साल तैयारी में लगे रहना आसान नहीं है। लेकिन जब कोई युवा सोच लेता है कि उसे एक सरकारी नौकरी लेनी है तो उसके बाद उसके साथ साथ कई लोगों की उम्मीदें जुड़ जाती है। ऐसे में हार मानने का विकल्प नहीं होता है। आने वाले दिनों में देश के विकास में युवाओं का अहम योगदान होगा। भारत का जनसांख्यिकी लाभांश यानी डेमोग्राफिक डिवीडेंड वर्ष 2041 के आसपास चरम पर होगा। इस दौरान कामकाजी उम्र वालों की जनसंख्या 59 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। देश के विकास के लिए यह बेहद जरूरी है कि इसका पूर्णतः लाभ उठाया जाए। लेकिन इस तरह युवाओं का श्रम बल से बाहर होना चिंता का विषय है। इसके लिए समाधान क्या हो सकते हैं? कुछ मुख्य बिंदुओं से समझने का प्रयत्न करते हैं। पहला, देश में गुणवत्तापूर्ण और कौशलपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देना। यूनिवर्सिटी और ट्रेनिंग संस्थानों के पाठ्यक्रम को आज के दौर की नौकरियों की जरूरत के हिसाब से तैयार करना ही सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरा, देश में स्टार्टअप सिस्टम को बढ़ावा देना और युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना। सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया जैसी कई योजनाएं भी हैं। पर इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि इसका लाभ सिर्फ कुछ शहर के या कुछ वर्ग के लोगों को ही ना मिले। इसी से जुड़ी हुई तीसरी कोशिश यह होनी चाहिए कि देश में क्षेत्रीय असमानता की खाई को कम किया जाए। महाराष्ट्र, कर्नाटक और दिल्ली जैसे राज्यों के मॉडल को बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्वी राज्यों में भी दोहराने की जरूरत है। चौथा, सरकारी नौकरियों की भर्ती को नियमित करना। पेपर लीक, भर्ती में फर्जीवाड़ा, सालों तक परीक्षाओं का टलना और अंत में ली गई परीक्षाएं भी रद्द कर दी जाती है। ऐसे में जो युवा आस लगा कर परीक्षा में अपना सबकुछ झोंक देते हैं, उनका इंतजार और बढ़ जाता है। इसीलिए इन भर्तियों को नियमित करने की आवश्यकता है। अंततः इस रिपोर्ट के जरिए यह तय है कि सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे युवाओं की मुश्किलें कम नहीं हैं। भारत के विकास की यात्रा में युवाओं की क्षमता और कौशल को सही दिशा में आगे ले जाना सबसे महत्वपूर्ण है।
लद्दाख: अस्थिरता और आंदोलन के बीच छठी अनुसूची में शामिल होने की जद्दोजहद
लद्दाख। भारत के इस केंद्र शासित प्रदेश का नाम सुन कर आपने मन में क्या छवि उभरती है? दर्शनीय पहाड़ों और चट्टानों से घिरा हुआ वो मनमोहक दृश्य, उन पहाड़ों पर छनकर इंद्रधनुषी चित्र बनाती सूरज की किरणें, प्राचीन मठों की शांति, बाइक राइड वाली लंबी और रोमांचक सड़के और भी बहुत कुछ। लेकिन लद्दाख में इस वक्त हालात ठीक नहीं हैं। क्यों लद्दाख की शांति को लगी है नजर? क्या कुछ ठीक नहीं है लद्दाख में और इन सब के बीच क्यों चर्चा में हैं मशहूर वैज्ञानिक सोनम वांगचुक। इन सब सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। लद्दाख में सब कुछ ठीक नहीं है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने और लद्दाख को संविधान के छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। और इन लोगों में एक नाम जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है मशहूर पर्यावरणविद सोनम वांगचुक का।सोनम वांगचुक उस वक्त काफी सुर्खियों में आए थे जब मशहूर फिल्म थ्री इडियट में आमिर खान ने उनका रोल निभाया था। लेकिन इस बार वजह कुछ और है। रैमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित सोनम वांगचुक ने पिछले दिनों लेह में 21 दिनों का आमरण अनशन किया था। बीते 6 मार्च को उन्होंने '#SAVELADAKH, #SAVEHIMALAYAS' के अभियान के साथ यह आमरण अनशन शुरू किया था। कड़ाके की ठंड के बीच यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब केंद्र सरकार और लेह स्थित कारगिल डेमोक्रेटिक अलायन्स के प्रतिनिधियों के बीच की बातचीत डेडलॉक की स्थिति पर पहुंच गई। ये डेडलॉक मुख्यतः चार मांगों को लेकर था। सरकार से उनकी कुछ मांगे हैं। दरअसल 2019 में धारा 370 के प्रभाव के खत्म होने के बाद जम्मू कश्मीर राज्य दो हिस्सों में बट गया था। जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया था। लेकिन अब लद्दाख के लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार उन्हें भूल गई है। कई बार उन्हें यह भरोसा दिलवाया गया कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। चुनावी वादों में भी इसका जिक्र हुआ। लेकिन अब तक उनकी मांगे पूरी नहीं हुई। उनकी प्रमुख मांग यह है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलें। इसके अलावा लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। एक अन्य मांग यह भी है कि लेह और करगिल के लिए अलग अलग लोकसभा सीट सुनिश्चित की जाए। इसके अलावा लद्दाख में अलग स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की व्यवस्था की जाए। अब जानते हैं कि यह मांगे क्यों उठ रही हैं। छठी अनुसूची के किसी भी इलाके में अलग तरह की स्वायत्ता होती है। संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) में विशेष व्यवस्था दी गई है। जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होने पर लद्दाख के पास यह विशेष अधिकार था। पूर्वोत्तर के कई राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में आज भी यह विशेष व्यवस्था लागू है। इसका फायदा यह है कि यहां इनका अपना प्रशासन है। इसे लागू होने के बाद खास इलाके में कामकाज को सामान्य बनाने के इरादे से स्वायत्त जिले बनाए जा सकते हैं। इनमें 30 सदस्य रखे जाते हैं। चार सदस्य राज्यपाल नामित करते हैं। बाकी स्थानीय जनता से चुनकर आते हैं। इन जिलों में बिना जिला पंचायत की अनुमति के कुछ नहीं हो सकता। यह सब तभी संभव है जब केंद्र सरकार इन्हें संविधान के मुताबिक यह अधिकार देगी। दूसरी मांग के पीछे भी कारण है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा बची हुई है लेकिन लद्दाख से विधायक नहीं चुने जाने का प्रावधान किया गया है। पहले यहां से चार एमएलए चुनकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व करते थे। लोगों के आक्रोश का एक बड़ा कारण यह भी है। इनका आरोप है कि अब उनकी बात सरकार तक पहुंचाने का कोई उचित माध्यम नहीं है। जब से नई व्यवस्था लागू हुई तब से सरकारी नौकरियों का संकट बढ़ गया है। पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के माध्यम से अफसरों की भर्तियाँ होती थीं तो लद्दाख को भी मौका मिलता था। आंदोलनकारियों का आरोप है कि बीते पांच साल में राजपत्रित पदों पर एक भी भर्ती लद्दाख से नहीं हुई है। गैर-राजपत्रित पदों पर छिटपुट भर्तियों की जानकारी जरूर सामने आई है। पर, लद्दाख में बेरोजगारी बढ़ी है। पढे-लिखे उच्च शिक्षित लोग छोटे-छोटे व्यापार करने को मजबूर हैं। बेहद कम आबादी होने की वजह से बिक्री न के बराबर होती है। दुकानें बंद करने की मजबूरी आन पड़ी है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर सोनम वांगचुक का कहना है कि केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने के बाद से लद्दाख में उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाने का खतरा है। इससे यहां कि नाजुक भगौलिक परिस्थिति और पर्यावरण को बेहद खतरा है। आने वाले दिनों में इस तरह के अनशन को और आगे बढ़ाने की बात भी चल रही है।
Write a comment ...