लद्दाख। भारत के इस केंद्र शासित प्रदेश का नाम सुन कर आपने मन में क्या छवि उभरती है? दर्शनीय पहाड़ों और चट्टानों से घिरा हुआ वो मनमोहक दृश्य, उन पहाड़ों पर छनकर इंद्रधनुषी चित्र बनाती सूरज की किरणें, प्राचीन मठों की शांति, बाइक राइड वाली लंबी और रोमांचक सड़के और भी बहुत कुछ। लेकिन लद्दाख में इस वक्त हालात ठीक नहीं हैं। क्यों लद्दाख की शांति को लगी है नजर? क्या कुछ ठीक नहीं है लद्दाख में और इन सब के बीच क्यों चर्चा में हैं मशहूर वैज्ञानिक सोनम वांगचुक। इन सब सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं। लद्दाख में सब कुछ ठीक नहीं है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने और लद्दाख को संविधान के छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। और इन लोगों में एक नाम जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है मशहूर पर्यावरणविद सोनम वांगचुक का।सोनम वांगचुक उस वक्त काफी सुर्खियों में आए थे जब मशहूर फिल्म थ्री इडियट में आमिर खान ने उनका रोल निभाया था। लेकिन इस बार वजह कुछ और है। रैमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित सोनम वांगचुक ने पिछले दिनों लेह में 21 दिनों का आमरण अनशन किया था। बीते 6 मार्च को उन्होंने '#SAVELADAKH, #SAVEHIMALAYAS' के अभियान के साथ यह आमरण अनशन शुरू किया था। कड़ाके की ठंड के बीच यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब केंद्र सरकार और लेह स्थित कारगिल डेमोक्रेटिक अलायन्स के प्रतिनिधियों के बीच की बातचीत डेडलॉक की स्थिति पर पहुंच गई। ये डेडलॉक मुख्यतः चार मांगों को लेकर था। सरकार से उनकी कुछ मांगे हैं। दरअसल 2019 में धारा 370 के प्रभाव के खत्म होने के बाद जम्मू कश्मीर राज्य दो हिस्सों में बट गया था। जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया गया था। लेकिन अब लद्दाख के लोगों का कहना है कि केंद्र सरकार उन्हें भूल गई है। कई बार उन्हें यह भरोसा दिलवाया गया कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जायेगा। चुनावी वादों में भी इसका जिक्र हुआ। लेकिन अब तक उनकी मांगे पूरी नहीं हुई। उनकी प्रमुख मांग यह है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलें। इसके अलावा लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। एक अन्य मांग यह भी है कि लेह और करगिल के लिए अलग अलग लोकसभा सीट सुनिश्चित की जाए। इसके अलावा लद्दाख में अलग स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की व्यवस्था की जाए। अब जानते हैं कि यह मांगे क्यों उठ रही हैं। छठी अनुसूची के किसी भी इलाके में अलग तरह की स्वायत्ता होती है। संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) में विशेष व्यवस्था दी गई है। जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होने पर लद्दाख के पास यह विशेष अधिकार था। पूर्वोत्तर के कई राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में आज भी यह विशेष व्यवस्था लागू है। इसका फायदा यह है कि यहां इनका अपना प्रशासन है। इसे लागू होने के बाद खास इलाके में कामकाज को सामान्य बनाने के इरादे से स्वायत्त जिले बनाए जा सकते हैं। इनमें 30 सदस्य रखे जाते हैं। चार सदस्य राज्यपाल नामित करते हैं। बाकी स्थानीय जनता से चुनकर आते हैं। इन जिलों में बिना जिला पंचायत की अनुमति के कुछ नहीं हो सकता। यह सब तभी संभव है जब केंद्र सरकार इन्हें संविधान के मुताबिक यह अधिकार देगी। दूसरी मांग के पीछे भी कारण है। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा बची हुई है लेकिन लद्दाख से विधायक नहीं चुने जाने का प्रावधान किया गया है। पहले यहां से चार एमएलए चुनकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व करते थे। लोगों के आक्रोश का एक बड़ा कारण यह भी है। इनका आरोप है कि अब उनकी बात सरकार तक पहुंचाने का कोई उचित माध्यम नहीं है। जब से नई व्यवस्था लागू हुई तब से सरकारी नौकरियों का संकट बढ़ गया है। पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के माध्यम से अफसरों की भर्तियाँ होती थीं तो लद्दाख को भी मौका मिलता था। आंदोलनकारियों का आरोप है कि बीते पांच साल में राजपत्रित पदों पर एक भी भर्ती लद्दाख से नहीं हुई है। गैर-राजपत्रित पदों पर छिटपुट भर्तियों की जानकारी जरूर सामने आई है। पर, लद्दाख में बेरोजगारी बढ़ी है। पढे-लिखे उच्च शिक्षित लोग छोटे-छोटे व्यापार करने को मजबूर हैं। बेहद कम आबादी होने की वजह से बिक्री न के बराबर होती है। दुकानें बंद करने की मजबूरी आन पड़ी है। पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर सोनम वांगचुक का कहना है कि केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने के बाद से लद्दाख में उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाने का खतरा है। इससे यहां कि नाजुक भगौलिक परिस्थिति और पर्यावरण को बेहद खतरा है। आने वाले दिनों में इस तरह के अनशन को और आगे बढ़ाने की बात भी चल रही है।
रांची की झुग्गी से निकल कर गुड़गांव के साइबर हब में सीनियर एनालिस्ट तक का सफर।
उम्र का वह पड़ाव जब बच्चे अपने खिलौने वाले किचन सेट में फूलों पत्तियों से नकली खाना बनाकर खेलते हैं, तब वह घर में दाल-चावल पका लेती थी ताकि उसकी मां समय से काम पर निकल सके। जब नन्हें-नन्हें हाथ गुड़ियों से खेलने वाले थे, वह पूरे घर की सफाई करती थी ताकि जब उसकी मां काम से थक कर लौटे तो उन्हें मेहनत ना करनी पड़े। जब ग्रेजुएशन के बाद आगे पढ़ने की बारी आई तो सिर्फ इसलिए काम की तलाश शुरू कर दी ताकि छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई में कोई दिक्कत ना आए। और जब उसकी उम्र के बाकी लोग सैर सपाटा करते हैं वह अपनी पूरी कमाई अपने छोटे भाई बहनों की पढ़ाई पर खर्च करती है ताकि वह अपने पैरों पर खड़े हो सके। कहते हैं जिम्मेदारियां आपको सब कुछ सिखा देती है। इन्हीं जिम्मेदारियों को निभाती हुई और अपने परिवार के प्रति निस्वार्थ प्रेम का उदाहरण पेश करती हैं रांची की ज्योति। अपनी उम्र के 26 वसंत देख चुकी ज्योति का जीवन हमेशा वसंत की तरह खुशनुमा नहीं रहा। बेहद आकर्षक नैन नक्श, आंखों में हजारों अनकही बातें और स्वाभाविक मासूमियत से भरा ज्योति का चेहरा देख कर आप कहीं से भी यह अनुमान नहीं लगा पाएंगे कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितना संघर्ष किया है। बचपन से ही वह काफी होशियार थी। मां ने सोचा गांव के सबसे अच्छे स्कूल में दाखिला करा देना चाहिए। लेकिन उस वक्त उन्हें अपने ही रिश्तेदारों और अन्य कई लोगों की फब्तियां सुननी पड़ी- “ बेटी को कौन पढ़ाता है, बेटी कौन सा कमा कर खिलाएगी।” इन तानों से तंग आकर और अपने दो और बच्चों के साथ ज्योति की मां रांची आ गई। किराए के एक कमरे वाले मकान से असली संघर्ष अब शुरू होने वाला था। ज्योति के पिता अखबार बेचने का काम करते थे। घर में आर्थिक तंगी होने लगी तो मां ने भी एक फैक्ट्री में सिलाई का काम करना शुरू कर दिया। ज्योति ने बचपन से ही यह सब देखा कि किस तरह उसके पिता चाहे कड़कड़ाती ठंड हो या मूसलाधार बारिश, रोजाना कई किलोमीटर साइकिल चलाते हैं ताकि घर में रोटी का इंतजाम हो सके। मां थोड़े से पैसे के लिए दिन में 10 घंटे सिलाई करती है। इन सब का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। चाहे वह पढ़ाई लिखाई हो या फिर घर में अपने घर में छोटे भाई-बहनों की देखभाल, वह हर चीज में निपुण हो गई। जिस सरकारी स्कूल में वह पढ़ती थी, वहां हमेशा ही फर्स्ट आती थी। यह देख कर मां-पिता को भी हौसला मिलता। ज्योति दसवीं की परीक्षा में पूरे स्कूल में पांचवें स्थान पर रही। इसके बाद विज्ञान विषय से बारहवीं की पढ़ाई भी पूरी की। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि करियर के लिए क्या चुने? तब उन्होंने सबसे पहली चीज जो पता लगाई कि किस चीज की पढ़ाई की जाए ताकि उन्हें जल्दी अच्छी नौकरी मिल सके। उन्होंने एक पल के लिए भी यह नहीं सोचा कि उनकी रुचि किस में है। जिस लड़की ने आज तक कभी कंप्यूटर नहीं चलाया था उसने स्नातक के लिए कंप्यूटर एप्लीकेशन विषय का चयन किया क्योंकि इससे उन्हें अच्छे प्लेसमेंट की उम्मीद थी। उन्हें पता चला कि देश में इस वक्त सॉफ्टवेयर इंजीनियर की मांग है। दिक्कतें कम नहीं आई। जब हिंदी मीडियम से पढ़ी लिखी ज्योति कॉलेज जाती तो वहां उन्हें दिखा कि उन्हें अभी और मेहनत करने की जरूरत है। उन्होंने दिन रात एक कर पढ़ाई की और उनकी मेहनत के आगे सभी दिक्कतें बौनी साबित हुई। वह बताती हैं कि उन्होंने इससे पहले कभी कंप्यूटर को हाथ तक नहीं लगाया था। पहली बार स्नातक की पढ़ाई के दौरान कॉलेज में यह मौका मिला। उन्होंने देखा कि किस तरह हिंदी मीडियम से पढ़े विद्यार्थियों को और अधिक मेहनत करनी पड़ती हैं। अपनी मेहनत के बल पर स्नातक के खत्म होते ही ज्योति को टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में प्लेसमेंट मिल गई। सैलरी कम थी पर यह उस घर के लिए सपने के सच होने जैसा था। कोरोना महामारी के दौरान जब उनके पिता अस्पताल में भर्ती थे, ज्योति ने पूरे घर की जिम्मेदारी उठाई। उस वक्त उनकी वजह से पूरा परिवार इस मुसीबत से बाहर निकल पाया। दो साल कोलकाता में टीसीएस में काम करने के बाद वह अपनी बहन की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई। यहां भी उन्होंने अपने बारे में नहीं सोचा। यहां उन्हें विप्रो में बतौर सीनियर एनालिस्ट की पोस्ट पर काम मिल गया। फिलहाल वह गुड़गांव के सबसे रिहायशी इलाके साइबर हब में काम करती हैं। जब वह अपने माता पिता को यहां अपना ऑफिस दिखाने के लिए ले कर आई तो बरसों का संघर्ष उनके आंखों के सामने आ गया। इस चकाचौंध में आज भी वह अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। उनका कहना है कि अभी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है। उनका सपना है कि वह अपने परिवार को दुनिया की सभी खुशियां दे सके। यह पूछने पर की यह सब करने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली, ज्योति कहती हैं “गरीबी ही सबसे बड़ी प्रेरणा थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी तरह मेरे छोटे भाई बहनों को भी पैसों की कमी की वजह से बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़े।” रांची की उस टीन की छत वाली घर से निकल कर यहां तक ज्योति का सफर प्रेरणादायक ही नहीं अनुसरणीय भी है। वह कहती हैं कि मेहनत से सब कुछ संभव है। उनका कहना है कि बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय हमें यह देखना चाहिए कि हमारे हाथ में क्या है और हम जो कर सकते हैं उसमें सौ प्रतिशत देना चाहिए।
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